यादें
दूब-सी फैली हैं
जेहन में
जड़ जमाकर गहराई में
उखाड़ फेंकती हूँ
जला देती हूँ
रौंद भी देती हूं
निष्ठुर बनकर
मगर फिर सिर उठा लेती हैं
कुछ वक़्त के बाद
नन्हीं, हरी पत्तियों की तरह
चाह कर भी
दूर नही हो पाती मुझसे
यादें तेरी।
दूब-सी फैली हैं
जेहन में
जड़ जमाकर गहराई में
उखाड़ फेंकती हूँ
जला देती हूँ
रौंद भी देती हूं
निष्ठुर बनकर
मगर फिर सिर उठा लेती हैं
कुछ वक़्त के बाद
नन्हीं, हरी पत्तियों की तरह
चाह कर भी
दूर नही हो पाती मुझसे
यादें तेरी।