यादें
तुम को छूकर जो हवा आती है
अक्सर मेरी दहलीज पर ठहर जाती है
पैगाम है कहीं से खास दुआओं का
सहलाकर यूं मेरे मन को चली जाती है
रंग खिलते रहें बदलते मौसम में सनम
यूं उम्मीद मेरे मन को छली जाती है
वक्त की रेत को हम कैसे सरकने देते
तेरी यादों की ओस से जमी जाती है
आओ तो कभी बैठकर दामन भर लूं
मद्विम सी जो लौ है दिये की जली जाती है
तूम हो अगर यादों मे भी तो कट जाएंगी राहें
ऐसे तो ये अक्सर संयम सी भटक जाती है।
ममता महेश