यादें बचपन की
कोई लौटा दे ओ मेरे बचपन की यादें,
मिट्टी के घरौंदे बनाना ओ कागज की नावें चलाना |
ओ गुल्ली-डंडे का अपना खेल निराला,
ओ छुपान-छुपाई, झाबर,कब्बडी,अखाड़े को तरस जाना ||
पैदल ही दौड़ते हवाई चप्पलों में,
घर से कोसो दूर होड़-होड़ में ही स्कूल पहुंच जाना |
ओ कुइयां का ठण्डा पानी नहाना,
अमराई की घुली जवानी, खलिहानों में मचल जाना ||
ओ महुवे की खुसबू में बगिया महकना,
लू चलना, काका के मड़हे में सोके दुपहरिया बिताना |
खेतों में जाके ताजे खीरे-खरबूजे खाना,
गाँव के नुक्कड़ पे आके रामलीला की फील्ड सजाना ||
गाँव की इकलौती बस का शहर से आना,
बाबा को आता देखते डर के मारे लटकों में छिप जाना |
साल भर गुल्लकों में पैसे संजोना,
दशहरे मेले की डूग्गी बजते उसे फोड़ने को मचल जाना |
गाँव तो वही पर बदल सब खो सा गया,
न आती मिट्टी की खुसबू, न खलिहानों का गीत सुहाना ||
कितना प्यरा निराला था बचपन हमारा,
गाँव छोड़ शहर को आये संपति बना डाली अट्टालिकाना |
कोई लौटा दे ओ मेरे बचपन की यादें,
मिट्टी के घरौंदे बनाना ओ कागज की नावें चलाना ||…..२
पं. कृष्ण कुमा शर्मा “सुमित”