#यादें #बचपन #की
#वो कागज़ की कश्ती, वो बारिश का पानी ।
बड़ी खूबसूरत थी वो जिंदगानी।।❤❤
इस चित्र को देखते ही मन बचपन की यादों के तरफ़ प्रफुलित हो उठा।याद आता है वो दिन जब हमे विद्यालय ले जाने के लिए हमारे माता-पिता को बहुत सारे षड्यंत्र रचने पड़ते थे और हम थे की विद्यालय जाना ही नही चाहते थे और जब घर में कोई फंक्शन हो उस समय विद्यालय जाना मृत्युदंड से कम नही लगता था। पर इतने षड्यंत्रो पर एक बच्चा कब तक बच सकता है विद्यालय जाना ही जाना है।
कुछ दिनों के बाद विद्यालय में काफ़ी मित्र बन गए मन भी लगने लगा साथ खेलना ,साथ भोजन करना बहुत मजा आता था। सबसे ख़ास बात यह थी कि #टिफ़िन में अग़र कुछ अच्छी चीज़ होती थी तो मन प्रार्थना करने भी नही लगता था क्योंकि ध्यान टिफ़िन के तरफ़ था और उस दिन मन में एक ही ख्याल आता था कि आज आगे वाली पंक्ति में नही बैठना है कुछ भी हो जाये। जैसे ही अध्यापक महोदय कक्षा में प्रवेश करते है मन दुःखी हो जाता पढ़ने में मन ही नही लगता था कुछ भी हो पर बैठे तो दूसरी पंक्ति में है वो जैसे ब्लैकबोर्ड के तरफ मुड़ते है हम धीरे से एक टुकड़ा तोड़ के खा लेते थे पर दोस्त भी कम बदमाश नही थे पीछे से #धमकी पर #धमकी दिए जाते की सर से कह देंगे ……ओह्ह! फ़िर क्या एक टुकड़ा दो घुस उनका मुँह बंद रखने के लिए बहुत कठिनाईयों का सामना करना पड़ता था । अब सोचने पर समझ मे नही आ रही ये बात की आख़िर उस खाने में था क्या जो टिफ़िन के तरफ ही ध्यान जाता था। कहने का तात्पर्य यह है कि अब उस टिफ़िन मे खाना रख के खाती तो खाने में वही सब रहता है पर स्वाद वैसे नही है जो उस समय था।।
……. ✍✍✍#शिल्पी सिंह ,बलिया उ.प्र