यात्रा
मनुष्य चाहता है
अपनी शून्यता में
एक पूर्णता का भाव।
एकदम स्याह रातों में
मुट्ठी भर रोशनी
नदी के दो किनारों को
मिलाने वाले पुल की तरह
चाहता है एक प्रेम सेतु।
बाहरी कोलाहल में सुना जाए
उसके अंदर का कोलाहल
और देखा जाए उसका निशस्त्र द्वंद
स्मृतियों की रणभूमि में।
मनुष्य अंतिम क्षण तक खोजता है
अपनी शून्यता की पूर्णता को।
और जीवन पर्यंत रहता है
स्वयं से स्वयं की यात्रा पर।