यह वेशभूषा ही मेरा रेल टिकट है(लघुकथा)
गेरुआ वस्त्र गले में माला त्रिपुंड एक झोली संत तेजी से आ रहे थे, शायद उन्हें यही ट्रेन पकड़नी थी, जिससे मैं उतरा था। पास आते ही मैंने संत को जय सियाराम किया, वे भी जय सियाराम करते हुए आगे बढ़ गए, लेकिन चेहरा और आवाज कुछ जानी पहचानी लगी, कहीं यह रामबरन तो नहीं? नहीं नहीं मुझे कुछ भ्रम हुआ होगा वह क्यों होगा भला? घर आ गया रामबरन के बच्चे खेल रहे थे, सो पूछ लिया बेटा तुम्हारे पापा कहां हैं? बच्चे ने बताया पापा तो अभी अभी ट्रेन से अपने गांव गए हैं। मेरी शंका और गहरा गई। चार-पांच दिन के बाद रामबरन लौट आया, जब मुलाकात हुई तो मैंने पूछ ही लिया यार तुम चार-पांच दिन पहले सुपर एक्सप्रेस से कहां जा रहे थे? मैं गांव गया था बाबूजी। पर तुमने संतो जैसे कपड़े क्यों पहन रखे थे? उसने बहुत ना नुकर की, लेकिन मैंने कहा मैंने तुम्हें अच्छे से देख लिया था और पहचान भी लिया था। बह टूट गया बोला बाबूजी अपने देश में संत वेश का बड़ा आदर है, आज भी सभी जन संत की इज्जत करते हैं,रेल में दरबाजे के पास बैठ जाता हूं, मैं रेल किराया बचाने के लिए संत वेश धारण कर निकल जाता हूं, यह वेश ही मेरा रेल टिकट है। आप तो जानते हैं, तीन-तीन बच्चे पढ़ाई का खर्चा, महंगाई कहां से बार-बार गांव जाने के लिए किराया निकालूंगा? मैं अवाक रह गया।
सुरेश कुमार चतुर्वेदी