यह रिश्ते
एक रिश्ते को सँभालने में
इंसान खुद अपना रिश्ता
भूल जाता है
माँ को संभाले
या अपने पिता का
फिर बीवी का
या अपने बच्चों का
वो क्या करे
क्या न करे
क्या वजूद रह जाता है
क्या उस को भाता है
बड़ी उलझन है
नहीं बाकि कोई
रहती समझ्न है
बेकार हो जाता है
बेचारा कुछ नहीं कर पाता है
इस को वो समझते
समझते, बस दुनिया से
सोचता , चला जाता है !!
अजीत कुमार तलवार
मेरठ