खता है किसकी … ?
यह कैसा जीवन है जिसमें,
पल पल मिटना पड़ता है,
क्षण क्षण रोने को बाध्य करे,
फिर भी हँसना पड़ता है ?
यह कैसा जीवन पथ जिस पर
चलकर पथिक भटक जाये,
माया मोह से जितना ही बचे,
उतना ही अधिक उलझ जाये ?
यह कैसी मानवता जिसमें
मानव, मानव को फटकारे,
सदां ऊंच नीच का भेद करे
हर सबल, निबल को दुत्कारे ?
यह कैसा साम्राज्य जहाँ
रक्षक, भक्षक बनकर उभरे,
कहीं नीति, प्रीति की बात नहीं
हर ओर कुटिलता के पहरे ?
कैसी क्रूर नियति है यह
जो अपना स्वयं विनाश करे,
मानव, मानव को काट रहा
फिर भी निष्ठुर अट्टहास करे ?
अतः हे सृष्टि में श्रेष्ठ ‘मनुज’
तू ही बता यह खता है किसकी ?
यह तेरी ही खता है या फिर !
जिसने तुझे बनाया उसकी ?
✍ – सुनील सुमन