यह इश्क़
यह इश्क़ यादगार हो गया ।
यूँ खुद राजदार हो गया ।
चलता दरिया के किनारों पे ,
लहरों को इंतज़ार हो गया ।
उठी नज़र निग़ाह उठाने को
आसमां को ऐतवार हो गया ।
सुकूँ तलाशा साये में छाँव की ,
अँधेरा भी हमराज हो गया ।
वक़्त गुजरा तनहाइयों में यूँ ही,
हर शख़्स तलबगार हो गया ।
…. विवेक दुबे”निश्चल”@..