यथार्थ
खोजता हूं कुछ खुद में। कुछ इस सोच में गुम हो जाता हूं। शायद मैं अभी तक अपने वज़ूद और अपनी हस्ती से ग़ुमशुदा हूं ।अभी तक मैं वही समझता था जो लोग मेरे बारे में कहते थे ।मेरी सोच पर उनकी सोच हावी थी ।यह मेरा भ्रम था कि लोग मेरे बारे में अच्छा सोचते और उनका व्यवहार जो दिखता है वह अच्छा है। उनके मुखौटों के पीछे वास्तविक स्वरूप पहचानने में मुझसे कुछ ना कुछ गलती हुई है ।जिससे परिणाम जो होना चाहिए वह नहीं निकलते ।जिससे मुझे आने वाली अप्रत्याशित समस्याओं से जूझना पड़ता है। वास्तविकता प्रत्यक्ष से परे होती है। हम दूसरों के बारे में जैसा सोचते हैं वो वैसे नहीं होते। आत्मीयता के दोहरे मापदंड होते हैं। जिसमें निहित स्वार्थ काअंश हो सकता है ।यह पहचानने में हम कहीं न कहीं गलती कर बैठते हैं। अंतरंग संबंधों को भी विवेक की कसौटी पर कसना पड़ेगा। क्योंकि पता नहीं कौन सा संबंध हमें मृगतृष्णा की भांति प्रकट हो। मनुष्य के जीवन में यथार्थ भावनाओं और कल्पनाओं से परे वास्तविकता के धरातल पर उभरता है ।जिसका दूरगामी प्रभाव हमारे जीवन पर पड़ता है ।जीवन संघर्ष में हमें प्रतिदिन समस्याओं से जूझना पड़ता है। अतः यह आवश्यक है कि हम अपने चारों ओर के वातावरण को समझ कर अपनी सोच पर कायम रहकर विवेकशील निर्णय लें। जिससे हमें भविष्य में कठिनाईयों का सामना ना करना पड़े।