यक्ष प्रश्न
कितने ठहराव
कितनी दीवारें
कितनी भूली बिसरी
बांधी सिमटी यादें
कितने स्वप्न
कितने सच
कितनी रातें
कितने अंधेरे
कितनी सुबहें
नम ओस रौशनी
कितने प्रण
कितनी पंखुड़ियां
कितने पुष्प
कितने अरमान
कितना सूनापन बाहर
कितने तूफान भीतर
कितने ख्वाबी
महल सतरंगी
कितने आश्रय
घुटी-घुटी रातें
कितने अवलंब
कितने बिलम्ब
कितनी छटपटाहटें
कितने बंधन
कितना व्योम
कितना शून्य
असीमित मन
सीमित पंख
वाहिनियों में रक्त,
जैसे कलकल नदी
ठहरती बहती
मचलती इतराती
जीवन रहस्य बताती,
हवाऐं पल-पल
छेड़ती जगाती
कहीं भी उड़ा ले जाती
पटखनी-दर-पटखनी
प्रश्न-दर-प्रश्न
जीवन रह गया
अबूझ यक्ष प्रश्न
मैं यों ही
तुम्हारे तिलिस्म पर
गीत गजल
काव्य कहानी
लिखता रहूं
ऐ जिन्दगी!
मेरा संकल्प देख
मैं तेरी बयार में
तेरी खुशी के मुताबिक
दिशा-विदिशा
उलझता बहता रहूं
जब तक
तेरे थपेड़े सह सकूं
तेरी इस अबूझ कोख में,
और
जब निस्तेज हो जाऊँ
उस पार चला जाऊँ
तेरे
उस आखिरी झोंके के साथ
ऐ जिन्दगी!
कितना सरल सहज निर्बाध है
तेरी आसक्त उलझनों के,
मकड़जाल में
मेरी जिजीविषा का
यह विरक्त उपक्रम।
-✍श्रीधर.