मज़दूरों का दर्द (#दोहे)
हृदय विदारक हो गया , मज़दूरों का दर्द।
अंगारे बरसा रहा , मानो मौसम सर्द।।
छालें फूटे पाँव में , शहर मिला ना गाँव।
आँसू आहें भूख बस , बेकारी का दाँव।।
वक़्त लगे है रूठ के , देता अब तो घाव।
जला रही है छाँव भी , जीवन बिना पड़ाव।।
सरकारों की हार है , मज़दूरों का दर्द।
साफ़ दिखे तब चेहरा , दर्पण हो बिन गर्द।।
प्रीतम लाचारी ठगे , शोषण करे शिकार।
कमज़ोरी हो साथ में , नहीं मिले अधिकार।।
–आर.एस.प्रीतम
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