म॔थन
जब भी हुआ मंथन
परिणत प्राप्ति ही है
लाभ वा हानि,
विष वा अमृत।
क्षीर सिंधु को मथा देवासुरों ने
निकल आए बहुरत्न,
लक्ष्मी तथा वस्तुएँ अनंत।
मिला अमृत तो, सभी ललकने लगे
देख हलाहल को चराचर जीव, तड़पने लगे।
पी गए आशुतोष हलाहल
सृष्टि फिर निर्भय हुई,
ये कथाएँ प्राचीन हैं
छिपी हुई समय के गर्भ में,
हैं परंतु सार्थक
अद्य भी, पुरातन भी।
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छिपे हुए हैं
मनुज के अंतर में भी,
विचार रूपी बहुविधि रत्न
आत्ममंथन में मिलेगा,
अमिय भी औ’ विष भी।
निर्णय तो बस नर का है, वो किसे अपनाएगा;
अब नहीं महादेव कोई, जो विषपान कर जाएगा।
?सोनू हंस?