मौसम की व्यथा
रे मौसम क्यों करते हो हम पर इतने सितम
अभी चंद महीनों पहले ही तो तुम थे कितने गरम
तुम्हारी प्रचंड अग्नि की वर्षा को सह न पाते थे हम
हमारी कोमल देह को अपने ताप से तपाते थे तुम
कभी शीतल जल तो कभी पसीने से नहा जाते थे हम
रे हठीले मौसम क्यों ढाते हो इतने सितम
मानव के मिजाज़ से तुम भी नहीं हो कम
एक पल में उगलते हो इतनी आग और दूजे क्षण बर्फ से जाते हो जम
मन से हो कितने निष्ठुर चंचल प्रियतम
अपनी प्रचंडता तो कभी शीतलता से तोड़ देते हो हमारे भ्रम
रे नखरीले मौसम कब तक ढाते रहोगे सितम
रे मानव कुदरत के वश में मैं रहता हूँ हरदम
तुम्हारी अति से त्रस्त रहता हूँ हरदम
हरियाली को तरसता हूँ पर उससे ही वंचित रहता हूँ
दूषित धुंए से है घुटता मेरा मन सह नहीं पता तुम्हारे सितम
क्या करे बेचारा मौसम दुःख का मारा हम सब के प्यार को तरसता हरदम
आओ मिलकर सब लें ये कसम पर्यावरण को सदा संवारेंगे हम