“मौन व्रत की जगह नहीं हैं, कवियों के संस्कारों में”
क्या लिख दूँ ऐ भारत मैं, तस्वीर तेरी अल्फाजों में
भूखे नंगे लोग मिलेगें हर कोने गलियारों में
सारी दुनिया मौन रहे पर हमकों तो कहना होगा
मौन व्रत की जगह नहीं हैं ,कवियों के संस्कारों में ।
सर्दी गर्मी सहते देखे, नंगे तन वो मौन रहे प्रकृति के प्रहारो पर
हमने रेशम की चादर चढते देखी, गुरुद्वारो और मजारो पर
छप्पन भोग चढे देखे, भगवान तुम्हारें मन्दिर में
भूख से बच्चें रोते देखे, उन्ही मन्दिर के द्वारो पर
ऐसा कितना और सहें…,
जिनको कहना वो मौन रहें
तेरी छवि बना दी स्वर्ग से सुन्दर
तुझ पर व्यंग अब कौन कहें
वो तस्वीर दिखानी होगी, जो दबी हुई कुछ ऊँची दीवारों में
मौन व्रत की जगह नहीं हैं, कवि तेरे संस्कारों में ।
सत्ताधारी बन बैठे जो, पर पहरेदार नहीं बन पायें
भारत तेरे पुजारी तेरा, सोलह श्रृंगार नहीं कर पायें
कुछ स्वप्न अधूरे छोड गये थे, जो भारत के निर्माता थे
वो स्वप्न आज भी उसी दशा में, कुछ भी साकार नहीं कर पाये
जब जब कलम उठेगी मेरी, सत्ता पर प्रहार लिखूँगा
अधिकारो की बात लिखूँगा, अनुचित का प्रतिकार लिखूँगा
तलवारों को ढाल बना कर, कलम को मैं संधान बना कर
तुम्हें बना कर दुल्हन जैसा, नया तेरा श्रृंगार लिखूँगा
गौर से समझों कर्तव्यो को, जो छिपे हुये अधिकारो में
मौन व्रत की जगह नहीं हैं कवियों के संस्कारों में ।
अखिलेश कुमार
देहरादून (उत्तराखण्ड)