मौन मुग्ध संध्या !
मौन मुग्ध संध्या !
मौन मुग्ध संध्या में ,रह-रह उठती आशंका
अम्बर में धूम -धुवारे कजरारे मेघा
गर्जन के तेज तमाचे पड़ते,बिजुरी डंडे दे जाती
दिनकर का रश्मि समाज छिप जाता
राकापति के शीतल शर तो बेदर्दी हो जाते है।
नक्षत्र लोक के अगणित सितारे,
कहीं भाग्य से छिप जाते है।
प्रचण्ड हवाओं का क्या कहना ?
वो छिप-छिप आशंका के घाव कुरेद जाती!
प्रकृति का कहना भी क्या अब !
हर साल पकी फसल पर
ओलों की मार जो दे जाती।
सरहद पर और भीतर देश के,
अम्बर सेना,जल सेना, थल सेना
कर पाती है सुरक्षा राष्ट्र जीवन की!
पर, करकापात से आत्मघाती
जो स्वयं खत्म होकर दे जाते मंजर कृषक बर्बादी।
बदला ले,तो किससे ले…….!
कहाँ एयर स्ट्राइक, सर्जिकल स्ट्राइक कर सकते है !
कभी शीत का पाला पड़ता
कभी करकापात हो जाता
आमों की मंजरी मिट जाती
तो कभी पशु गर्भपात हो जाता
कभी पशुधन बिक जाता ,तो –
कभी मुँह का निवाला धरती पर रो पड़ता।
फटी रह जाती आँखें बेबश
हाथों को लकवा मार जाता
जोड़ो में पानी भर जाता
गात शिथिल हो जाता।
चिंता और आशंका की रेखा
धूँधली से स्पष्ट चित्रपट बुन जाती
जो हुए जवानी में बूढें
वहीं बचपन में रहे अधपढ़े
बन किसान पाल रहे जग पेट
अपनी क्षुदा,प्यास,स्वप्न को मेट
कैसे सार्थक होगा कृषक जीवन ?
भटक रहा वो राजनीति के वन-वन !
अपनी ठंडी रोटी के टुकड़ों पर
जग को नाचते देख रहा !
उसकी भाग्य बारहखड़ी बाँचते विधाता देख रहा(उदास)
उसके परिश्रम की मेहंदी को
कोई ना राचते देख रहा !
टूटी-सी ढीली खटिया पर
टूटे स्वप्न देख रहा !
लड़की ब्याह कैसे हो ?
कौन कृषक के घर में,
अपनी लड़की को मेरे लड़के संग…….!
टूटे से आवास हमारे,आले में मकड़ी के जाले !
आँगन में चूहों की बारातें,
जीर्ण काया पर व्याधियों की घातें ।
उठा फिर नई फसल की उम्मीदों से,
वृद्ध मन उड़ न सकता परिदों से
टूटी सी खटिया पर……
डोल रहा उसका घर !
स्वरचित मौलिक
राजेश कुमार बिंवाल’ज्ञानीचोर’
9001321438