‘मौन का सन्देश’
वर्जनाओँ का किला,
सँवाद मेँ, क्योँ ढह रहा।
अनर्गल, बातों का है,
साम्राज्य, प्रतिदिन बढ़ रहा।।
भाष्य, बोझिल हो,
कई, कलुषित, कथानक गढ़ रहा।
वार्ता की, दुखद परिणति,
को निमंत्रित, कर रहा।।
धृष्टता को यूँ लगे,
सम्मान, चहुँदिश मिल रहा।
सँयमोँ का, सूर्य पर,
है ऊर्ध्व गति, से चढ़ रहा।।
तिमिर के मन मेँ भले ही,
दम्भ, कुत्सित, चल रहा।
दीप “आशा” का मगर,
निर्बाध गति से जल रहा।।
शब्द के कोलाहलोँ मेँ,
ताज़गी सी, भर रहा।
मौन का, सन्देश अप्रतिम,
है बहुत कुछ, कह रहा..!
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