‘मौन अभिव्यक्ति’
लालिमा के मन, क्षितिज की,
हूक सी क्यों, उठ रही।
व्योम, वसुधा से,
कहे कैसे कि, तुम से प्यार है।
पुष्प, कलिका से, बयाँ,
अनुभव है अप्रतिम कर रही।
मुस्कुराना, सोच कर ही,
निर्दयी, सँसार है।
प्रशँसा भी, पवन आख़िर,
सुरभि की, कैसे करे।
कुछ न कह पाने का, बरबस,
उसके भी मन-भार है।
मिलन की “आशा” लिए,
सरिता है, अविरल बह रही।
किन्तु सागर क्या कहे,
उर में उठा, जो ज्वार है।
यूँँ तो अपनापन जताना,
प्रेम का आधार है।
व्यक्त, कर पाता न पर जो,
उसका भी आभार है..!
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