“मौत”
ताप तन का
मिटा रहा
तन में शीतलता
जगा रहा
छलें पांव
छालों ने इतने
फूंक-फूंक कर
बुझा रहा।
मौत ने कुछ
हारा नहीं
जीवन से बड़ा
कुछ प्यारा नहीं
सत्य मौन है
मिथ्या जीवन
एक सीमा है बस,
किनारा नहीं।
बिक रहे है
प्रेम जहां
बस्ती के सब
गुण, अवगुण
ईश्वर, अल्लाह
सब एक है
सगुण ब्रह्म हो
या हो निर्गुण।
आंख मिचौली
बादल का
फूंक रही है
तन मन को
धरती है
बेहाल यहां
तड़पा रही है
जन जन को।।
राकेश चौरसिया