मौत का यथार्थ
हम जिंदा हैं,
मग़र हिस्सों में,
धर्म,जाति, सम्प्रदाय में करते हैं हम फ़क्र,
मनुष्य स्वतंत्र मानता है इन्हीं बटी हुई रेखाओं में,
बदबू सिर्फ जुबान या तन की नहीं भाषा की भी होती है,
धर्म से हम श्रेष्ठ, जाति से उच्च,सम्प्रदाय से विवेकवान होने का रखते हैं दम्भ,
मौत सुलाती है सबको एक जैसा,
पर हम सत्य के अस्वीकार के साथ जीते हैं,
अस्वीकार जब धीरे-धीरे सत्य से कराता है साक्षात्कार,
हम सहन नहीं कर पाते हैं,
पाते हैं तनाव भावना दब सी जाती है,
सब होता है मन बुद्धि से परे,
सारी पहचान खत्म,
फिर होती है आत्महत्या सुनिश्चित,
जिंदा होकर भी यदि डाले गहन जोर,
फिर अजीब सा होता है शोर,
मुर्दा तो सभी हैं,
तन से,मन से,जुबान से,
बस विचरण करते हैं जब तक न हो वास्तविक मौत,
मृत्यु भी बड़ी कठिनाई से मिलती है,
पहले जलाती है फिर भभक कर करती है खत्म।