मोहल्ला की चीनी
मुहल्ले जब से
कॉलोनी हुए हैं
पता ही नहीं
चलता
पड़ोसी के घर
क्या पका है।
पहले कटोरी ले
चीनी मांगते थे
आये दिन चीनी
खत्म हो जाती
पड़ोस में इतना
स्टॉक होता था
मिल जाती थी।
चाय बागान बाजू
वाले घर में ही था
‘ बहन जी! चाय की
पत्ती खत्म हो गई
है क्या…!!’
“क्यों नहीं, बहन जी
ये कल ही लाये थे..”
मुफ्त में चाय मिलती
चाय पर चर्चा होती
और एक- दो चम्मच
ले हम घर आ जाते।।
हर बार एक घर तो
खटखटाया नहीं जाता
अगला फेरा दूसरे घर होता
मना कोई नहीं करता था
सहज उपलब्ध हो जाता था।
इसके दो फायदे होते थे-
-पूरे मुहल्ले की रिपोर्ट
मिल जाती थी…
– बफर स्टॉक पता लग
जाता था।।
तब चीनी/ चाय की
पत्ती लेने वालों का
वेलकम होता था..
न कोई मुँह बनाता
न तकादा करता था।
पुलिसिया काम हम
सहज कर लेते थे..
मुखबिरी/ खुफियागिरी
उधार मांगना सामाजिक
सरोकार था/ त्योहार था
न शर्म/ न झिझक..
जब कई दिन बीतते..
देने वाला खुद घर आ जाता
ऋण लेकर घी पीयो
बहन जी! बहुत दिनों से
चीनी लेने नहीं आईं…!!
सब ठीक तो है…??
आज न चीनी है
न चाय की पत्ती
स्टॉक सब के घर
पर कितनी दूरी…
कितनी मजबूरी..
तल से तल चिपके हैं
लब से लब भटके हैं
कुछ भी हो जाये
किसी को नहीं पता।।
अच्छा था वो मुहल्ला..
जरूरत से ज़्यादा पता।।
सूर्यकान्त