मोहन राकेश आज भी!
उसकी आंखों पर मोटा काला चश्मा है घुंघराले बालों का पफ और बंद अधरों की गहरी ख़ामोशी
बहुत कुछ कह जाती है।एक घुम्मकड़ असंतुष्ट चरित्र जो ना केवल काग़जों पर दिखा बल्कि असल में भी वो ऐसा ही था।जीवन में कहीं भी स्थिरता नहीं पर लेखन में बेबाकी।एक और ज़िन्दगी,मिस पाल,मलबे का मालिक,ज़ख्म जीनियस,सीमाएं,मंडी,फटे हुए जुते,कवार्टर,ठहरा हुआ चाकू और ऐसी ही सैकड़ो कहानियों में मोहन राकेश अदृश्य रूप में स्वयं नज़र आये।आषाढ़ का एक दिन,लहरों के राजहंस,आधे अधूरे और पैरो तले ज़मीन जैसे नाटकों में रंगमंच को एक नया आयाम दिया।
अंतराल,ना आने वाला कल उनके प्रसिद्ध उपन्यास हैं।मुझे मोहन राकेश की डायरी अधिक पसंद है इसलिए मैंने पीएचडी शोध हेतु डायरी को अपना विषय बनाया।मोहन राकेश का जन्म 08 जनवरी 1925 को अमृतसर में हुआ था।कितनी ही मर्तवा उन्हें पढ़ा पर सदा अतृप्ति ही रही।मुझे रोज़ डायरी लिखने के लिए मोहन राकेश ने ही प्रेरित किया।
मनोज शर्मा