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7 Sep 2021 · 10 min read

मानो की शादी

मानो आकाश छूना चाहती थी लेकिन माँ की जिद के कारण उसके पिता मरण पंडित को चौदह साल की अवस्था में ही उसकी शादी करनी पडी थी. पिता ने बहुत बार उसकी माँ को समझाया-बुझाया था कि अभी मानो पढेगी, लिखेगी, आगे बढ़ेगी तब उसका हाथ पीला करना उचित होगा लेकिन माँ के सामने कुछ न चला. माँ का तर्क था कि बेटी पराई सम्पति होती है वह जितना जल्द अपना घर बसा ले , वही अच्छा.अंतत: मरण पंडित ने एक पन्द्रह वर्ष का लड़का ढूँढकर उसकी शादी कर दी थी. लड़का अभी मात्र दसमा में पढ़ रहा था और मानो नौवां की विद्यार्थी थी. जब मानो से भोनू की शादी हुई थी उस समय दोनों शादी-व्याह से अनभिज्ञ थे. दोनों को इस बारे में अधिक जानकारी नहीं थी. उस समय न टी.वी. था, न घर में अखबार आता था , न आज की तरह मोबाईल का प्रचलन था ताकि फेशबुक,यूट्यूब गूगल देख-देख आठ की अवस्था में लडका-लडकी अठारह की बात सोचे और समझे.

भोनू और मानो दम्पति की तरह कम और दोस्त की तरह ज्यादा रहते थे.भोनू भोर में जब अन्हार्मूह ही रहता था तभी अपने हम उम्र लड़का-लडकी के साथ बोरा लेकर चौंड चला जाता, वहाँ से बर्तन बनाने के योग्य मिट्टी लाता.फिर थोड़ा आराम करके नहाता धोहाता और खाना खाकर दहेज में मिली हीरो साईकिल को पुराना कपड़ा से झार-झुर करता और फिर स्कूल चला जाता था. भोनू को शादी के समय माँ सिखलाई थी कि शादी के विध-व्यवहार में रूस जाना और जब ससुराल वाले मनाएंगे तो उनसे मनपसंद चीज जरुर मांगना, भोनू वैसा किया भी था. उसने पढने वाला टेबुल- कुर्सी की फरमाईस की थी और तर्क दिया था कि कुर्सी और टेबुल पर बैठकर पढने से नींद नहीं आयेगी. भोनू के ससुराल वाले उसकी बात सुनकर हँसे भी थे लेकिन उसकी मांग की पूर्ती बेटी बिदाई के साथ ही कर दी थी।

मरण पंडित शादी तय करने के समय मानो के पिता से कहा था कि लड़का अभी स्कूल जाता है,स्कूल पांच किलो मीटर दूर है अत: दहेज में कुछ दीजिए या नहीं दीजिए एक साईकिल जरुर दे दीजियेगा. लडकी वाला दिलदार किस्म का था,उसने साइकिल, घड़ी और रेडियो के साथ साथ एक अंगूठी भी दिया था.उसी चमचमाती साईकिल से हाथ में चमकती-दमकती पीली-अंगूठी पहनकर विद्यालय बहुत आनंद के साथ जाता था. उस स्कूल में सभी बच्चे कुंआरे थे केवल शादी-शुदा कोई था तो बस भोनू.
कभी कभार भोनू से स्कूल के मास्टर साहेब लोग भी पूछ बैठते थे कि भोनू ससुराल से और क्या-क्या मिला था इस हीरो साईकिल और अंगूठी के सिवाय ? तब भोनू सविस्तार वसिऔरा की बात बतलाता था और सभी शिक्षक छात्र सुन-सुन कर भोनू की नादानी का आकलन करते थे.मानो का स्कूल छूट चुका था जबकी शादी के समय बात ऐसी हुई थी कि तीन वर्ष के बाद गौना होगा तबतक मानो नैहर में ही रहेगी और आगे की पढाई करेगी. लेकिन इसमे भी माँ की ही बात मानी गयी और मानो को शादी के अगले दिन ससुराल भेज दिया गया था.मानो भी इस बंधन में फंसना नहीं चाहती थी, वह पढ़-लिखकर कुछ करना चाहती थी लेकिन माँ की जिद ने उसे ससुराल जाकर कच्ची उम्र में घर बसाने को मजबूर कर दिया था।

लोग कहते हैं- जहां चाह,वहाँ राह. मानो ससुराल चली आई. यहाँ मानो की सास बहुत समझदार मिली थी. दो चार दिन में ही उसे मानो के अंदर पढाई- लिखाई के प्रति जो ललक था उसे समझ गयी थी. मानो की सास,आनंदी देवी, मन ही मन उसे बहु नहीं बल्कि एक पुत्री के रूप में स्वीकार की थी और उसे उसी तरह रखने लगी थी. मानो की सास गरीब घर के होते हुए भी वह विचार से बहुत अमीर थी, साधारण पढ़ी-लिखी भी थी. मानो के ज्ञानार्जन और विद्या के प्रति अनुराग देख वह हैरान रहती थी. दोनों सास पुतोह माँ-बेटी की तरह अपना दुःख-सुख साझा करते थे. उसने मानो को उसकी पढाई में हर संभव मदद करने लगी थी. मानो भी घर- आँगन के काम- काज को निबटाने के बाद अपनी पुस्तैनी बरतन बनाने वाले काम में भी थोड़ा बहुत अपने सास-ससुर को मदद कर दिया करती थी. इन कार्यों से बचे समय को वह पढने – लिखने में लगाती थी. कभी- कभी भोनू के साथ भी पढने के लिए बैठ जाती थी।

भोनू का असली नाम भोनू नहीं था.उसका नाम माता-पिता ने भानू प्रताप पंडित रखा था लेकिन वह बचपन से ही सीधा-सादा था जबकि उसका छोटा भाई सुरजीत काफी नटखट और चालाक स्वभाव का था.उसकी एक छोटी बहन भी थी, वह सुरजीत से भी छोटी थी .उसका नाम मोनी था-बहुत सुन्दर सुशील.मरण पंडित बेशक निर्धन थे लेकिन अपने बाल-बच्चों को पढाने-लिखाने का बहुत शौख था. उनका मानना था कि विद्या एक अनमोल आभूषण है , कोई माता पिता अपने बच्चों को कुछ दे, न दे लेकिन विद्या रूपी आभूषण उसे अवश्य दे. पहले तीनो भाई बहन एक साथ स्कूल चलते थे. रास्ते में सुरजीत और मोनी अपने अपने स्कूल चला जाता था और भोनू का स्कूल सबसे दूर था इसलिए वह दोनों को स्कूल पहुंचाकर खुद बाद में स्कूल जाता था लेकिन जबसे दहेजुआ साईकिल भोनू को मिली तब से दोनों को साईकिल पर आगे-पीछे बैठाता था और मस्ती में दोनों को अपने अपने स्कूल छोडता हुआ अपने स्कूल की ओर रवाना हो जाता था.

मानो की सास जब कभी बाजार जाती, मानो से पूछती तुम्हारे लिए कुछ लाना है तो वह केवल कुछ किताब, कोपी, कलम ,पेन्सिल लाने को कहती और जब आनंदी देवी बाजार से आती तो उसका सामान खोज-खोज कर अवश्य लाती थी. उसने एक स्कूल के मास्टर साहेब से मिलकर मैट्रिक के फार्म भरने की भी व्यवस्था कर दी थी. जब मानो और भोनू एक साथ पढने को बैठते तो दोनों लगन के साथ पढाई करते थे लेकिन कभी कभी दोनों के मन संबंध की गहराई में भी प्रवेश भी कर जाता था और दोनों के दिलों में प्यार की चिंगारी छिटक उठती थी.लेकिन इसका एहसास कौन कराये ?भोनू बहुत संकोची था, वह चाहकर भी पहल नहीं कर पाता था. मानो थोड़ा हंस मुस्कुरा देती और भोनू भी खुश होकर हंस देता था. इस तरह पहल की शुरुआत होने लगी थी. भोनू की माँ भी दोनों को एकांत में जाकर पढने की सलाह देकर अपने मातृत्व धर्म का पालन करती थी. दो साल के बाद दोनों एक दूसरे के प्रति आकर्षित होने लगे थे, संबंध की पवित्रता का निर्वहन करने लगे थे. तबतक भोनू इंटर पास कर चुका था और मानो भी प्राईवेट से परीक्षा देकर मैट्रीकुलेट हो चुकी थी।

घर की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी. पुस्तैनी पेशा के अलाबा थोड़ी सी जमीन थी. जमीन से जो उपज होती थी वह काफी नहीं होती थी.मिट्टी के बरतन का चलन कम होने लगा था.लगन में और पर्व त्यौहार के अवसर पर कुछ मांग बढ़ जाती थी बाकी समय कारबार मंदा ही रहता था. भोनू अपने पिता के काम में हमेशा सहायता करता था बाकी समय अपनी पढाई में देता था. परिवार में काफी प्रेम और सौहार्द का वातावरण था. जो था उसी में वे संतुष्ट थे हाय-तौबा नहीं था. मरण पंडित अब बूढ़े हो चले थे और शरीर थक चुका था.अब उतना मेहनत मजदूरी नहीं हो पाता था फिरभी मरण पंडित उस अवस्था में भी देह को खींच रहे थे. आनन्दी देवी भी अब बीमार रहने लगी थी.

भोनू अपनी पढाई चार वर्ष पहले ही बी.ए. करके छोड चुका था और मानो पहले इंटर की परीक्षा पास की. चूल्हा-चौका का काम तत्परता के साथ करती,अपनी सास की सेवा भी मौक़ा मुनासिब करने के बाद जो समय बचता उसे वह अध्ययन में लगाती थी. तरह-तरह की प्रतियोगिता की किताब भोनू से मनवाती, कभी कभी उसके सास-ससुर भी लाकर दे दिया करते थे.मानो तरह-तरह की कहानी-कविता लिखती थी. उसमे से कुछ कहानी-कविता को जहां –तहां प्रकाशित होने के लिए भी भेजा करती थी।
सामाजिक पत्रिका में उसकी एक सामाजिक कहानी छप भी गयी थी जिससे उसका हौसला और बढ़ गया था. भगवान की कृपा सुरजीत स्नातक की परीक्षा पास करके शिक्षा विभाग में किरानीगिरी की सरकारी नौकरी करने लगा था. माँ की बीमारी का इलाज और बहन मोनू की शादी दोनों भाईयों के सामने काफी गंभीर समस्या थी. भोनू बेचारा अपने पिता के कारोबार को संभालने लगा और सुरजीत अपनी आमदनी को बचाकर कुछ पैसा इकठ्ठा किया और कर्जा पईन्चा करके अपनी छोटी बहन की शादी अपने बिरादरी के ही एक अच्छा सा घर-वर देखकर करना चाहता था. एक दिन शाम के वक्त सुरजीत ने अपने पिता से बोला- “ बाबूजी, मोनू अब विवाह योग्य हो गयी है . अब उसका विवाह करना जरूरी हो गया है.”
“हाँ बेटा, मैं भी तो यही सोच रहा हूँ लेकिन न पैसा है न कोई अलग की थाती.”
“मैं हू न बाबूजी, थाती की क्या जरुरत है ?”
“तुम पर कितना बोझ दूं बेटा, भोनू को भी कोई काम लग जाता तो ———“
“नहीं बाबूजी, आप निराश मत होईये, भैया क्या आमदनी नहीं करते हैं , दिन रात भैया और भाभी कराचुर मेहनत करते हैं, हम सभी का पूरा ख्याल रखते हैं. केवल पैसा ही सब चीज का मापदंड थोड़े ही है, बाबूजी.”
“मेरा मतलब है बेटा, कि बी.ए . पास करके ये मिट्टी के बरतन बनानेवाला काम करता है , मुझे अच्छा नहीं लगता.”
“ बाबूजी, आप ज्यादा सोचते हैं , कोई काम बुरा नहीं होता. अपना काम करना स्वाभिमान की बात है. हाँ बाबूजी, मैं क्या बोला रहा था कि मैं मोनू के लिए एक लड़का देखा हूँ ,आप कहें तो बात करूँ.”
“कौन है ?” खटिया पर ठीक से बैठते हुए उत्सुकता के साथ मरण पंडित बोले.
“बाबूजी, आप भी जानते होंगे अलाबलपुर वाला वाल्मीकि पंडित को उन्ही का बेटा है. मेरे ही ऑफिस में काम करता है उसका नाम दीपक पंडित है. बहुत नेक लड़का है.”

मरण पंडित को सुरजीत की बात पर विश्वास नहीं हो रहा था. कहाँ वाल्मीकि पंडित और कहाँ हम ! वे अपने बेटा की शादी मेरे यहाँ नहीं करेंगे और यदि करेंगे भी तो कहाँ से इतना तिलक दहेज देंगे, स्वागत बात भी उसी तरह का करना होगा.
“क्या सोचने लगे, बाबूजी ?” अपने पिता की मन: स्थिति को भांपते हुए सुरजीत बोला
“मुझे लगता है बेटा, वे मेरे यहाँ पहले तो सम्बन्ध करेंगे नहीं और करेंगे भी तो उनकी मांग को पूरा करना मेरे बस की बात नहीं है.”
“आप केवल हाँ कह दीजिए बाकी सब मुझपर छोड दीजिए.”
“क्यों, तुम इतना भरोसा के साथ कैसे कह सकते हो ?”
इसलिय बाबूजी कि कल दीपक के पिता जी किसी काम से ऑफिस में आये थे.उन्होंने खुद मुझसे दीपक के सामने कहा था कि तुम्हारी बहन को मैंने एक फ़ंक्शन में देखा था, बड़ी सुन्दर और सुशील कन्या है जिस घर की बहु बनेगी उस घर को स्वर्ग बना देगी.वह लक्ष्मी है लक्ष्मी.”
आएँ ! ऐसा बोले थे वाल्मीकि बाबू? मुझे तो विश्वास ही नहीं हो रहा है.” आश्चर्यपूर्वक मरण पंडित ने कहा.
“हाँ बाबूजी “
“तब तो लगता है कि उनसे बातचीत करना चाहिए . मैं कल ही जाता हूँ उनके लडके का हाथ माँगने.”
“हाँ बाबूजी, आप पहले जाईये, शुरुआत कीजिये. मैं भी कल दीपक से इस संबंध में बात करूँगा.”
बातचीत घर के बाहर जहां चाक रखी थी, वहीं हो रही थी।घडा बनाने के लिए गीली मिट्टी का लोंदा चाक के नजदीक रखती हुई मोनू बोली- “बाबू जी, आप इस मिट्टी से कुछ नहीं बनाईयेगा, भोनू भैया कुछ अलग तरह के बरतन बनाएंगे जिसका बाजार में आजकल बहुत मांग बढ़ा हुआ है. मोनू को आते हुए देखकर सुरजीत और उसके पिता बातचीत बंद कर चुके थे लेकिन मोनू को कुछ भनक तो मिल ही गयी थी । क्योंकि इस बात की चर्चा सुरजीत अपनी भाभी से भी किया था और मानो अपने ननद मोनू को यह बात बता चुकी थी। ”
जब भोनू घर आया तो मरण पंडित ने मोनू के रिश्ता की बात के बारे में बताया. वह इस रिश्ता के लिए काफी उत्सुक था. बातचीत करने जाते वक्त भोनू को भी चलने के लिए उसके पिता ने कहा था. भोनू भले ही घर के लिए भोनू हो लेकिन बाहर में बात करने का बहुत सुन्दर तरीका जानता था.वाल्मीकि पंडित बिना कोई शर्त के अपने बेटे दीपक की शादी की बात पक्की कर ली .मोनू की शादी दीपक के साथ संपन्न हो गयी और वह अपने ससुराल चली गयी.

धीरे-धीरे आनंदी देवी की हालत बाद से बदतर होने लगी थी. उनकी अब एक ही तमन्ना थी कि वह अपनी नयी बहु को भी अपनी आँख से देख लें और बहुत जल्द उनकी मनसा पूरी भी हो गयी. एक अच्छा परिवार से सुरजीत के लिए रिश्ता आया और मरण पंडित शादी के लिए हामी भर दी. सुरजीत और शीला की भी शादी संपन्न हो गयी. सुरजीत की शादी के सोलहवें दिन आनंदी देवी ने अपनी आँख मूँद ली, घर की लक्ष्मी चली गयी. पूरा परिवार दुःख दरिया में डूब गए और सबसे ज्यादा आघात उस परिवार में आनंदी देवी के जाने से हुआ तो मानो को।

अभी मानो अपनी सास के दुखद मौत को भूली भी नहीं थी कि किसी अज्ञात बीमारी के गिरफ्त में भोनू ऐसा आया कि चटपट में भोनू कल कलवित हो गया, मानो का संसार उजड गया. कोख में पलता हुआ संतान और साजन का अचानक प्रयाण मानो को अंदर से हीला दिया था.टूट गयी थी मानो. दुःख की घड़ी में ही मानव के धैर्य की परीक्षा होती है. मानो के सर पर ससुर का हाथ था और मानो के ऊपर लाचार ससुर के परवरिश का बोझ. सुरजीत की बदली अन्यत्र हो गयी थी. वह शीला के साथ नौकरी पर ही रहने लगा था. अब घर में दो सदस्य रह गए- एक विधवा बहु और दूसरा लाचार ससुर.इस विकट परिस्थिति में भी मानो ने अपना हौसला को कम नहीं होने दिया।
पेट में पलता बच्चा और बूढ़े ससुर की देखभाल दोनों के बीच उसने अपना एक रास्ता निकाल ही ली थी. अपनी लेखनी को उसने इतनी सशक्त बना ली थी कि अच्छे – अच्छे प्रकाशक खुद उसके दरबाजे पर आने लगे थे. पैसा और प्रतिष्ठा दोनों मिल रहा था लेकिन उसके अंदर का दर्द बेशुमार था. वह एक ही बात हमेशा सोचती रहती. आज मेरी इस कामयाबी को देखने के लिए मेरी सास और मेरे पति नहीं रहे जो इस प्रतिष्ठा और पैसा के असल हकदार थे. ससुर अपनी बहु की बनती छवि से काफी प्रसन्न थे. दादी आनंन्दी देवी तो अपने पौत्र को गोदी में तो न खेला सकी थी लेकिन दादा ने अपने पौत्र के साथ चार वर्षों तक खूब खेले और खेलाए फिर स्वर्ग सिधार गए. मानो के लिए अब उसका बेटा ही सर्वस्व था.
मनोरथ महाराज
एस.एन.मेमोरियल स्कूल
न्यू जगनपुरा, पटना 800027
mobile 9431623322

Language: Hindi
4 Comments · 403 Views
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