मोदी और संत कबीर!!
संतो देखत जग बौराना।
सांच कहीं तो मारन धावै, झूठे जग पतियाना।।
नेमी देखा धरमी देखा, प्रात करै असनाना।
आतम मारि पखानहि पूजै, उनमें कछु नहिं ज्ञाना।।
बहुतक देखा पीर औलिया, पढ़ै किताब कुराना।
संतो देखत जग बौराना।
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हिंदू कहि मोहि राम प्यारा
तुर्क कहै रहमाना,
आपस में दोऊ लड़ि-लड़ि मरै
मरम न कोउ जाना।
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पाहन पूजैं हरि मिलैं तो मैं पूजों पहार!
याते से चाकी भली, पीस खाए संसार।।
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माला फेरत जुग गया, गया न मन का फेर।
कर का मनका डारिके मन का मनका फेर।।
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कितनी शानदार, मर्मस्पर्शी और सच्चे धर्म को चंद क्षणों-शब्दों में समझा देनेवाली पंक्तियां हैं. जब मैं उच्चतर माध्यमिक शाला का विद्यार्थी था तब ही मैंने अपने पढ़ने के कमरे में संत कबीर, स्वामी दयानंद सरस्वती, और स्वामी विवेकानंद की तस्वीरें लगा रखी थी. इतना ही नहीं, इनके बारे में बहुत जानने-समझने की प्रक्रिया शुरू भी हो गई. फिर कुछ साल बाद मोहन डहेरियाजी, आरएच शेंडेजी और संतोष टांडिया जी के संपर्क में आने पर तथागत बुद्ध, बाबासाहब आंबेडकर, महात्मा ज्योतिबाराव फुले, राजर्षि शाहू महाराज और पेरियार स्वामी नायकर के व्यक्तित्व-कृतित्व से परिचय हुआ. फिर बीच में मध्यप्रदेश के मंडला जिले के नैनपुर में आरएसएस के अनुषंगी संगठन विद्याभारती द्वारा संचालित विद्यालय में अध्यापन के दौरान मुझे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विचारधारा को गहराई समझने का अवसर मिला. हालांकि परिवार के साथ-साथ मेरे अधिकांश रिश्तेदार तो वैसे भी पहले से ही भाजपा से जुड़े थे और कुछ आज भी जुड़े हैं. खैर, संत कबीर सहित इन तमाम प्रगतिशील महापुरुषों के विचारों से मेरा परिचय मेरे वैचारिक उत्थान का कारण बना और फिर मेरे मन में इतनी अकुलाहट जागी कि लगने लगा है कि इन महापुरुषों की तस्वीरें और इनके विचार कितनी जल्दी और किस तरह जन-जन तक पहुंचें. यहां मैं अपनी अकुलाहट को कबीर के शब्दों में ही व्यक्त करना चाहूंगा- ‘सुखिया सब संसार है, खावै अरु सोय, दुखिया दास कबीर है जागे अरु रोय.’ बस यही स्थिति मेरी बन गई.
जब मैं प्रगतिशील विचारों से धीरे-धीरे परिचित हो रहा था, उस वक्तअर्थात नब्बे के दशक में देश में दक्षिणपंथी ताकतें (रूढ़िगत विचार) उत्कर्ष पर थीं. ‘एक धक्का और दो बाबरी मस्जिद तोड़ दो’ जैसी प्रतिक्रियावादी कट्टरपंथी ताकतें उफान मान रही थीं. लेकिन इसी के बीच मैं प्रगतिशील विचारधारा की सरिता में सुकूनभरा गोता लगा रहा था. संयोग देखिए अभी हाल के इन दो महीनों के दौरान मैं एक बार पुन: संत कबीरदास जी के साहित्य के अध्ययन में जुटा था कि मोदी जी के संत कबीर के समाधि स्थल मगही जाने की खबर टीवी में देखी. तब मेरे दिल से यही आवाज निकली- ‘अरे वाह रे घड़ियाल!’ आप शायद इस तथ्य से परिचित होंगे कि घड़ियाल शिकार को मुंह में दबाने के बाद आंसू बहाता है. जुबान से यह कहावत भी निकल पड़ी – ‘सौ-सौ चूहे खाए बिल्ली हज को चली.’ हालांकि मैं तो चाहता हूं कि संत कबीर जी के विचारधारा जन-जन तक पहुंचे, वे सबके बनें लेकन उन्हें लेकर कोई नौटंकीबाजी न करे.
आप भी इस पर गंभीरता से सोचिए कि आज देश का विशिष्टजन (शासक जमात) किस तरह बौराया-घबराया हुआ है. आज उसके पास अपनी खुद की वैचारिक विरासत में अब वह चमक नजर नहीं आ रही है कि वे देश की बहुसंख्यक कर्मयोगी जनता को भरमा सके. उन्हें यह अहसास अच्छी तरह से हो गया है कि आज के आधुनिक वैज्ञानिक युग में केशवराव बलीराम हेडगेवार, माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर, नाथूराम गोडसे और दीनदयाल उपाध्याय जैसे उनके महापुरुषों की विचारधाराओं में वह वैचारिक चमक नहीं है. हालांकि अब तक इनकी पूरी कोशिश रही कि ‘हिंदू वर्सेज मुस्लिम-क्रिश्चियन विवाद’ पैदा कर अपना उल्लू सीधा किया जा सके लेकिन उसमें वे पूरी तरह सफल नहीं हो पा रहे हैं इसलिए अब यह नई चाल चली जा रही है. प्रगतिशील-क्रांतिकारी महापुरुषों को छीनने की. इतना ही नहीं उनके विचारों को गड्डमगड्डम करने की कोशिश भी हो रही है. अगर ये संघी और भाजपायी तथागत बुद्ध, महात्मा गांधी, डॉ. आंबेडकर, महात्मा फुले, राजर्षि शाहू, संत कबीर आदि को इतने ही मानने वाले थे, फिर इन्होंने इन्हें अब तक कहां छुपा रखा था. इन लोगों की तो अब तक यही टैग लाइन थी- ‘सौगंध राम की खाते हैं, हम मंदिर वहीं बनाएंगे.’ अब दक्षिणपंथी ताकतों को पता हो गया है कि देश की बहुसंख्यक जनता उनके ‘राम’ और उनके ‘राम मंदिर निर्माण’ के पीछे की छुपी मंशा को समझ गई है. यही कारण है कि देखिए इनकी चाल पहले सरदार पटेल, फिर बाबासाहब और अब संत कबीर के माध्यम से बहुसंख्यकों तक पहुंच बनाने की कोशिश की जा रही है. अब देखिए किस तरह आरएसएस संत कबीर को निशाने पर ले रही है 28 जून 2018 को मगहर में संत कबीर के नाम पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की उपस्थिति में जो भव्य समारोह हुआ, उसका लक्ष्य राजनीतिक था.
लेकिन हमें यह अच्छी तरह जान लेना चाहिए कि संत कबीर का जन्म और निवास जिस लहरतारा में था, वह काशी से बाहर है और बनारस के भीतर है. बुद्ध भी ज्ञान-प्राप्ति के बाद बनारस आए थे, मगर गंगा नदी के किनारे रुकने के बजाय वरुणा नदी के किनारे रुकना उन्हें ज्यादा अच्छा लगा था. वे काशी के बजाय सारनाथ में सुविधा महसूस कर रहे थे. ‘बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय’ का नारा शुरू देने वाले तथागत बुद्ध ‘काशी’ से कटकर ‘सारनाथ’ में खड़े हुए थे. कबीर भी उसी तरह की परंपरा के चिंतक-कवि-महापुरुष हैं, उन्होंने भी काशी की परंपरा को आत्मसात नहीं किया. आपको पता है कि संत कबीर ने मगहर में प्राण क्यों त्यागे? उस वक्त यह धारणा थी कि काशी में मरने पर स्वर्ग मिलता है और मगहर में मरने पर नरक इसलिए कबीर मगहर गए थे. इससे काशी छोटी हुई या नहीं? — यह सवाल महत्त्वपूर्ण नहीं है लेकिन ऐसा कर उन्होंने समाज को एक क्रांतिकारी दृष्टिकोण प्रदान किया. मित्रों, आपको अब तक कई तरह से भरमाया गया है, आगे भी भरमाया जाएगा. आपको बगुला भगतों से सावधान रहने की जरूरत है. अंत में संत कबीर की ही पंक्तियां पेश कर अपनी बात समाप्त करना चाहता हूं.
‘मन मैला, तन उजला बगुला कपटी अंग।
तासो तो कौआ भला, तन-मन एक ही रंग।।
– 30 जून 2018, शनिवार(संपादित फेसबुक पोस्ट)
नोट : हर बार मेरे पोस्ट लंबे हो जाते हैं लेकिन क्या करूं. विचारों का बहाव इतना प्रबल हो जाता है कि मैं लिखने को विवश हो जाता हूं.