मैथिली भाषा/साहित्यमे समस्या आ समाधान
–दिनेश यादव
नेपाल’क मैथिली भाषा, साहित्य आ काव्य परम्पराकें विभिन्न कालमें विभाजन कएल गेल अछि । मैथिली साहित्यके आधुनिककाल सन 1950 के बाद शुभारम्भ भेल छल(मैथिली कविता संग्रह,2053 ) । परन्च साहित्य क्षेत्रमे ई भाषा अखनोधरि ‘एकैहटा जाति’क पकड’ आ ‘दबदबा’ सँ मुक्त नहि भँ सकल अछि । किछु सीमित व्यक्तिकें कब्जामें मैथिली रहल बात देखल गेल अछि । खास कँकें मिथिला’क ‘इलिट क्लास’ के लोकन्हिकें हालीमुहाली यै में बेसी अछि । कतेकौं सरकारी दस्तावेज सब सेहो अहि बात’क पुष्टि करैत अछि । मैथिली भाषा आ साहित्यमें जहि रुपेण एकल जातिय बोलबाला अछि, अहि सँ बहुतो के एहेन लागि रहल अछि जे ‘मैथिली हमर भाषा नहि थिक कि ? ’ । ई एकटा दूर्भाग्यपूर्ण अवस्था थीक । मैथिली साहित्यके आधुनिककाल’क करीब 70 वर्ष’क बादों ओ वर्चस्प नहि टुटि सकल अछि । मिथिला क्षेत्र’क दलित आ जनजातिकें मैथिली साहित्यमें शून्यप्रायः उपस्थिति अछि । परन्च, हुनका लोकन्हिकें कला, संस्कृति आ लोकदेवता’क नाम पर झिल्ली झारैवला सब बड बेसी अछि । अहि नाम पर झिल्ली झारैवला’क सदखनि गुल्जार रहल देखल गेल अछि । मिथिला क्षेत्र’क सोलकन (सवर्णबाहेक कें जातिय समूह) आ पिछडा जाति वर्ग(ओबिसी) समुदायकें उपस्थिति दोगादोगी त देखल जा सकैत अछि, मुदा ऊंगली पर ओकरा गनि सकैत छी । मैथिली भाषा’क उत्थान, प्रगति आ उन्नयन’क लेल खुजल संस्था सबकें द्वारा सेहो अन्य जाति÷सम्प्रदायकें प्रोत्साहन कएल गेल नहि देखमामें अबैत अछि । अर्थात मैथिली भाषा आ साहित्यमें दलित, मुलसमान, जनजाति, पिछडावर्ग, सोलकन समुदायकें सक्रिय उपस्थिति आ सहभागिताकें निस्तेज कएल गेल बात महशुश होएत अछि । दोसर बात, नेपालीय मैथिली भाषासाहित्यके जर्गेना आ उत्थान कएबाक हेतू नेपाल सरकार द्वारा देबवला पुरस्कार, सम्मान सबमें सेहो भारतीय मैथिली भाषी सर्जककें घुसपैठ करबाक चलने कायम भँ गेल अछि । ओहूमें स्वजातिय बन्धु लोकन्हिकें बड बेसी । परन्च ओम्हरका सरकारी पुरस्कार सब मे एम्हरका सर्जकके पहूँच आ उपस्थिति नहि देखबामें अबैत अछि , नहि छैक । ओना त , साहित्य , सर्जक, कलाकार, रचनाकार, कवि लोकनिकें कोनो सीमामें बाँधल नहि जा सकैत छैक । मुदा जहि रुप सँ पुरस्कार आ सम्मान सबकें बाँटबखरा होयत आयल अछि, ओ आपत्तिजनक मात्र नहि, नेपालीय मैथिली भाषीकें अपने भाषा÷साहित्यप्रति मोह तोडबाक प्रपञ्च सेहो थीक । अहिमें सुधार जरुरी अछि । सरकार यदि ठीके मैथिली भाषा आ साहित्यके टेवा पहूँचेबाक चाहना रखने अछि त , एहेन गतिविधि, संस्कार आ परम्परामें ‘ब्रेक’ लगेबाक चाही । अई सँ मैथिली साहित्यमें नवतुरिया प्रतिभा सबहक प्रवेश होएत आ भाषा’क नाम पर सिण्डीकेट चलौनिहार सभकें दोकानदारी बन्द होएत, चाँदी कटाबमें बन्देज लागत ।
साहित्यमे ऐतिहासिक ग्रन्थके महत्व
कोनो भी भाषा आ साहित्यमें जातियता आ सम्प्रयताकें जगह मिलनाई ओहि भाषा’क लेल घातक भँ सकैत अछि । अध्ययन सब सँ ई पत्ता चलैत अछि जे मैथिली भाषा साहित्यमें एकल जातिय (कथित उच्च जाति) दबदबा बड बेसी अछि । पहिने जेहन रहैक, आजू फरक शैलीमें ओ क्रम जारी अईछे । चौधम् शताब्दकें महान ग्रन्थ जोतिरीश्वर’क ‘वर्णरत्नाकर’ एकटा सबूतकें रुपमे लेल जा सकैत अछि । ओही ग्रन्थमे अन्य नाच आ लोक बाजा सबके चर्च कएल गेल अछि, परन्च ‘सलहेस नाच’ आ ‘ओरनी’ के चर्च नहि अछि (लोकनायक सलहेस,2070) । बहुत राश इतिहासविद्के मत छन्हि जे ‘सलहेस’क काल’ ओहूँ सँ पहिने शुरु भेल रहैक आ सलहेस नाच ओहें समय प्रचलनमें आयल होयत । इतिहास्विद् मणिपद्म पाँचम् वा छठम् शताब्दीमें सलहेसके जन्म भेल बात लिखने छथि । ओना त अहि विषय पर मतैक्यता नहि अछि । तईयो बहुमत् विद्वानक मतके जौ मानव त ज्योतिरीश्वर सँ बहुत पहिने सलहेस’क जन्म भेल रहल निस्कर्ष पर पहुँचल जा सकैत अछि । मादे, ‘दलित’ होमक कारण हुनका ओही समयमें अपन साहित्य रचनामें उल्लेख करबामें मनासिब नहि मानल गेल होए ? पहिने साहित्य लिखित रुपमें नहि रहैक । श्रुति आ स्मृति’क आधार पर कागजमे लिखल जाएत छलैक । ओही समयमें ‘शुद्रके वेद पाठ करबामें रोक रहैक’(ऐऐ), एहो मानसिकता’क कारण ‘सलहेस नाच’ समावेश नहि कएल गेल कि ? ओहूना ओहि समयमें अपनेबारे खुद लिखबाक अवस्था नहि रहैक । मैथिली साहित्यमें जातिवादी संकिर्णता सम्भवतः अहि काल सँ शुरु भेल रहैक । जेना जे होइ, मैथिली साहित्यमे आबैवला नवतुरिया सबके ई प्रश्न सबदिन खेङ्गहारितें रहत ।
साहित्यमें चेतना
साहित्यमार्फत चेतना जगेनाई सँ बेसी, सस्ता प्रचारमें खुशी होमेवला सब मिथिलामें बड बेसी अछि । खास कँके, मैथिली साहित्यमें पर्याधार खोजनिहार सब कम भेटैक छैक । मिथिला क्षेत्रमें ‘मैथिली हमरों भाषा थीक’ मानसिकतामें जातिवादी, संकीर्णतावादी आ वर्चस्पादीकें द्वारा ग्रहण लगा देल गेल अछि । जन–जिव्हा’क बोलीकें कात्त लगबैत बहुजन सँ उच्चारणे नहि होमेवला, नहि पढैवला आ नहि लिखैयवला भाषा, शैलीकें अघोषित रुपमे मानक मानल गेल अछि । तई अहि दिस आन जाति’क रुची नगन्य अछि । सरकारी बजेट होए या गैर–सरकारी संस्थाके अनुदानमें छापल गेल पुस्तक सबके संपादन टिममें अन्य जाति लोकनि सबकें अवसर नहि देनाई एकर ठोस प्रमाण भँ सकैत अछि । अन्य जातिकें लोक सबके ‘सेरिमोनियल एडिटर’ बनेबाक चलन पुराने अछि । अहू सँ मैथिली साहित्य, संस्कृति आ कला खास जाति आ वर्गमें सीमित भेल बात बुझबामें किनको कठीन नहि होबाक चाहिं । अति प्राचिनतम भाषा आ अपन लिपी भेल मैथिली अपेक्षाकृत जहि रफ्तार सँ आगा बढबाक चाहि छल, ओ गति अखनोधरि नहि पकडबाक कारण बहुतो भँ सकैत अछि । ओहिमें भाषा’क मुखिया जाति आ समुदाय मानैनिहार सबके द्वारा आन पर अपन शैली, बोली आ चोली लाँधि देनाई प्रमुख कारण थीक । ओहुना किछु सीमित उच्च जाति आ वर्गके तुलनामें आन सबके भाषा, संस्कृति आ शैली जर्गेना’क चेतना’क स्तर बहुत कम छैक, अछि । अहि चेतना’क स्तरकें ऊपर उठेनाई आवश्यक अछि । चेतना’क दियौरी कें अउर बेसी प्रकासमान बनबैत मैथिलीके मूल धारमे सब कियोकें प्रतिनिधित्व’क लेल सब तरहकें साहित्यके सम्यक्के खोजी होमाक जरुरी अछि । रस्ता एक पेडिया अछि, परन्च उच्च राजमार्ग खोधनाई जिम्मेवारी सबकें अछि से बात मैथिली भाषा अभियानीकें बुझैटा पडतैनि । सुन्दर, पठनीय आ प्रमाणिक साहित्य आ सृजनाके लेल सन्दर्भ सामग्री, अन्वेषक, अनुशन्धाता, विज्ञ सबके खोजी करैत आगा बढबाक जरुरी अछि । तहिना, मैथिली साहित्यमें सौन्दर्य शास्त्र ‘एस्थेटिक्स’ अभाव अखैड रहल अछि, आब अहि दिस विलम्ब नहि होए से अपेक्षा सरोकारवला सब सँ मैथिलीजन रखने छथि ।
साहित्यमें समावेशिताके प्रश्न
मैथिली भाषा आ साहित्यके लेल समर्पित पत्रिका ‘आँगन’ मे समावेशिताकें अभावसंगैह गुटवाद सेहो हावी भेल बात असानी सँ महशुश होएत अछि । पत्रिका’क संपादन टिममें प्रधान सम्पादक सब अपन–अपन पक्षधर लोकनि के रखबाक एकटा परम्परा स्थापित भेल अछि । एतबे मात्र नहि, आलेख आ रचना सबमे सेहो प्राथमिकता ओहि रुप सँ होयत देखल गेल अछि । अनुशन्धानके एकटा टूल्स ‘र्यान्डम स्याम्पलिङ’ मार्फत छनौट कएल गेल ‘आँगन’ के चारिटा अंक (3, 5, 6 आ 7) अध्ययन कएला पर ओहने प्रत्याभूति होएत अछि । अहि अंक सबमें प्रकाशित रचना सँ मिथिला क्षेत्र’क ‘जन–जिव्हाक बोली आ शैली’ कें प्रतिनिधित्व नहि भेल अछि । मैथिली साहित्यकें भाषा शैलीके लेल कथित ‘मानक’ मानैनिहारवला जाति/समूदायके प्रत्यक्ष संलग्नता सँ ओहिमे प्रकाशित रचना भूईंयाजनकें प्रतिनिधित्व नहि कँ सकैत अछि । खास कँके मैथिली साहित्यमें दलित, मुस्लिम, सोलकन, ओबिसी लगायतके पहूँच भेले नहि छैक । समावेशिताक सिद्धान्त सब ठाम लागू होबाक चाहिं, छैक । परन्च मैथिली भाषा/साहित्यिक गतिविधि सबमे ओ नहि भेटैक छैक । ई एकटन पैघ दुर्भाग्य थीक ।
‘आंगन’ के अंक 3 मे 20टा शिर्षकमें रचना सब समावेश भेल अछि । कविता शिर्षकमें 15 टा रचनासहित 5 गोटाके आलावा सब एकैह जाति’क साहित्यकारक प्रतिनिधित्व कराओल गेल छैक । दलित, मुस्लिम, जनजातिलगायके उपस्थिति नहि छैक । ‘आंगन’ के अंक 5 में समावेश 24टा रचना/सामग्री सबमे 6 गोटाके बाहेक सब एकल जातिक लोकनिके छनि । अहिं मे दू गोटा दलित डा. महेन्द्रनारायण राम आ डा.बुचरु पासवान (दुनू गोटा भारतीय नागरिक थिकाह) के आलावा नेपालीय मैथिली क्षेत्रके दलितके समावेश नहि कयल गेल अछि । मुस्लिमके समावेश नहि अछि । ओहिना, ‘आंगन’ के अंक 6 मे 26 टा रचना/सामग्री समावेश अछि । ओहिमें 5 गोटा मात्र अन्य जातिके अछि । अहि अंकमे सेहो भारतीय लेखक डा.राम आ डा. पासवानके आलावा नेपालीय मैथिली भाषी दलितके स्थान वर्जित जका अछि । ‘आंगन’ के अंक 7 मे 40टा साहित्यिक रचना सब समावेश अछि, ओहिमें 12 गोटाके आलावा सब एकैह जाति/वर्ग/समूदाय(उच्च जाति) के छथि । अहिमें दुईगोटा मुसलमान त समावेश अछि, दलित समुदायके साहित्यकारक प्रतिनिधित्व नहि होमे सकल अछि । यी चारिटा में सँ तीनटा अंकमे क्रमशः लोककवि विद्यापति, लोकनायक सलहेस आ दीनाभद्रीक सम्बन्धमे विशेषांक प्रकाशित होनाई सकारात्मक बात थिक । मैथिली साहित्यिक अहि पत्रिकामें संपादन मण्डलमे जहि जातिविशेषके बहुलता छैक, रचना/सामग्री सबके प्रकाशनमे हुनके लोकनिके ग्राहयता भेटल बातक निस्कर्ष निकालल जा सकैत अछि ।
अमर्यादित साहित्य
मैथिली कथाकार सबके द्वारा चयन कएल गेल पात्र सबमे विशुद्ध जातिय गंध, रंग आ शैली देखमामे आबि जाएत छैक । रमेश रंजनजीके कथा ‘रेडी’(आंगन, वर्ष 5, अंक 5, पृ.14, 2070) मे ‘अयोधी बाबू’ आ ‘खोखबा’ पात्र सब तेहने वर्गिय विभेदक एक रुप भँ सकैत अछि । मैथिली कथा सबमे एहेन पात्रक प्रयोग सँ रोचकता, मिठास आ आत्मरति त बढा सकैत अछि । परन्च, मिहिन विश्लेषणके बाद यी मिथिला साहित्यमे सामन्तवादक अवशेष अखनो शेष अछि तक्कर पुष्टि करैत अछि । एहेन शब्दावली सबकें प्रयोग मिथिला साहित्यमें जहर घोलबाक काज कए सकैत अछि, मैथिलीजनकें जोडि नहि सकैत अछि । कथाकार रमेश लिखैत छथि–
‘अयोधी बाबू भोर–भोर गंगासागरमें स्नान क क जानकी मन्दिर दिश विदा भेल छलाह । मन्दिरक पट खुलिते उएह पहिल व्यक्ति छलाह जे मैयाक दर्शन कएलनि । निकलँ कालमे ललाटपर चमकैत टोप ……(अनुच्छेद 3) ।…….टाकक दोग दकें खोखबाक आँखिपर पडलै तँ खोखबा करोट फेरलक । फेर पलक खोललक । देखलक, ‘आरो तोरीके भोर भँ गेलै , मालजाल भितरेमें कच्छड कैटैत होतै (अनुच्छेद 7) ।’ (आंगन, अंक 5)
यी अनुच्छेदमें उल्लेख कएल गेल वाक्यके प्रस्तुतिमे रोचकता त अइछे । परन्च, प्रत्यक्ष÷अप्रत्यक्ष रुपमे मुनस्मृतिके गन्ध महशुश होएत अछि । प्रस्तुत पात्र आ शैली सँ धर्म आ श्रमके आधार पर विभाजनक रेखा खिचबाक प्रयास भेल बात असानी सँ बुझबामें अबैत अछि । साहित्यमे लेखकके प्रस्तुति सँ एकटा साझा अवधारणा बनबाक सन्देश सम्प्रेषण होबाक चाहिं । मैथिलीमें लिखल गेल ई कथा सँ धर्ममें लागल लोक सभ जल्दि उठि जाएत छैक, श्रमजीवि सब अबेर उठैत छैक से अर्थ लगेबाक प्रशस्त जगह छैक । मिथिला क्षेत्रमे उच्च जातिक आ सम्भ्रान्त लोकनिके पाछा ‘बाबू’ आ अन्यके लेल ‘बा’ विश्लेषण जोडबाक चलन पुराने अछि । एकर पुनर्रावृत्ति कथामे कयल गेल अछि । ओना त सामान्य अर्थमे साहित्यमे एहन विषय सबके गौण मानल जाएत अछि, तईयो विभेदीकरणके सिद्धान्त मुताबिक ई एकटा भंयकर त्रुटि भँ सकैत अछि । मैथिली साहित्यके सर्जक सबमे एहेन गल्ति बेर–बेर दोहरैत आबिए रहल अछि । अहि प्रकारके गल्तिप्रति सचेत, सावधान आ संवेदनशिल होनाई जरुरी अछि ।
मैथिली भाषा साहित्यमे मात्र नहि नेपाली साहित्यमें सेहो एहेन प्रवृति आ प्रस्तुति देखल गेल अछि । मादे समग्र मधेसीकें निच्चा देखबैवला साहित्य रचना सब पाठक समक्ष परोसल गेल अछि । ‘मधेस समस्या आ सम्भावना’ पुस्तकमे डा. रावअवतार यादवके द्वारा ध्रुवचन्द्र गौतमके ‘अलिखित’ उपन्यासके प्रसंग उल्लेख कयल गेल अछि । पुस्तकके ‘मधेसी हुँदा’ शिर्षकले डा.यादव लिखैत छथि ः
मधेसीके ‘अलिखित’ जेहन नेपाली उपन्यास अपन विषयवस्तु बनौने अछि । ध्रुवचन्द्र गौतमके ‘अलिखित’ मधेसीके निच्चा देखमामें एकगोटा उत्कृष्ट उदाहरण छैक । वास्तवमे कहल जाए त ई पहाड अंहकारक चरम नमुना थिक । ‘अलिखित’ के नायक दिनमे दू छाँक खाएत छथि, विरहिनपुर बरेवाके भोजपुरीभाषी मधेसी परस्त्रीके सुतबैत छथि । यौनसम्पर्क करय सँ पहिने प्रेमस्नेहके कोनो बात नहि करैत छथि, फटाफट यौनक्रिया लिन भँ जाएत अछि । यौनक्रियाके बात कतेक बेर दोहराएल अछि जे उपन्यासक बहुत राश पाना सब पुरुष’क वीर्य आ ओकर गन्ध सँ लतपत अछि । उपन्यासमें नारायणी अंचलके उत्तेजक यौनाङके रुपमे चित्रण कएल गेल अछि । …..गरीब आ भुखल मधेसीके एक दिनक कामके बैनि वाफत जमिनदार्नीके पेसाब करैय वला वर्तन(कोप्रा) मे देल गेल दालभात खेबाक बातक वर्णत कँके लेखक आनन्द लए रहल छथि । एतेकके बाबजूद ओ ओहि मधेसी पात्रक मूह सँ पेसाबे सहि ओ दोसरके नहि जमिनदार्नीके छैक कहैत खुशी प्रकट करैत छथि (पृ.4 आ 5) । (उपन्यासकारके द्वारा पिछला अंकमे अहि वाक्यांशके हटाओल गेल बात सुनमामे आयल अछि )
साहित्यमे लोकगाथा
मिथिला साहित्यमे लोकगाथाके स्थान महत्वपूर्ण मानल गेल अछि । मिथिला क्षेत्रमे जतेक प्रचलित लोकगाथा सब अछि , अधिकांश मजदूर वर्ग सँ सम्बन्धित अछि । तईं लोकगायक सब सेहो मजदूर वर्गके भेटैत अछि । मैथिली साहित्यमे विद्यापतिके जतेक प्राथमिकता देल गेल अछि , लोकनायक आ लोकगायकके नहि । पिछला समयमे मैथिली साहित्य, कथासहितमें मुसहर जातिके लोकदेवता ‘दीनाभद्री’ आ पासवान(दूसाध) समुदायके ‘सलहेस’ के व्यापक चर्चा आ स्थान भेट रहल अछि । फलस्वरुप यी दूटा लोकदेवके समग्र मिथिलाके पूजनीय पात्र’क रुपमे स्थापित भेल अछि । साहित्यमे दोगादागी ‘अल्हा रुदल’ के सेहो चर्चा भँ रहल अछि । परन्च, कारिख, भूइयाँ, विषहारा, बिहुला, कुमर–वृजभान, शीत–बसन्त, लोरिक मनियार, पचनियाँ, पमरिया, कविरसहितके विषय सुन्दर मैथिली साहित्यके अभिन्न अंग नहि बनि सकल अछि ।
साहित्यकारके दू फरक शैली
मैथिलीके किछु साहित्यकार सब आत्मकेन्दित बेसी देखबामे अबैत अछि । अपनाके मैथिलीके ‘भेटेरान्स’ मानैवला एकगोटा अगुवा अपन गजल संग्रह निकलबाक लेल गैरआवासिय नेपाली सँ लाखक लाख टका उठेने रहैक । एकटा भेटमे अई स्तम्भकारके ओ बतौने छलाह । हुनक कथन रहनि जे अहि टाकाके मैथिली साहित्यके विकास आ उन्नतीमे सहयोग हेतू उपयोग कँ सकैत छलाह, ओ साहित्यकार । परन्च ओ अपनेमे केन्द्रित भँ गेलाह । एकर विपरित व्यक्तिगत रुप सँ मिथिला क्षेत्रके संस्कृति, सामाजिक आ साहित्यिक कार्यमे सिरहामे जन्मनिहार मुना चौधरी (पेशा अध्यापक) के योगदान सराहनीय अछि । ओ थारु समुदायके भेलाके कारण मैथिली भाषाके ‘वहिष्करण’ में परल छथि । इतर मातृभाषा आ समुदायके होइतो नेपाली भाषामे उपन्यास लिखनिहारी ओ पहिल आख्यानकार छथि । ‘जयवर्धन सलहेस’ हुनक पहिल किताब थिक । अहिमे पौराणिक–ऐतिहासिक मिथिला क्षेत्रके सांस्कृतिक, सामाजिक आ राजनीतिक अवस्था जानकारी उपलब्ध अछि । संग्रिला बुक्स के द्वारा लायल गेल चौधरीके उपन्यास मिथिला क्षेत्रके पौराणिक लोकगाथा आ मौलिकतामे आधारित रचना थिक । समग्र मिथिलाके ही लोकनायकके रुपमा पूजित सलहेक बारेमे उपन्यास लिखनिहारी ओ सम्भवतः पहिल व्यक्तित्व सेहो अछि । मुदा मैथिली साहित्य आ सिर्जनामे हुनका प्रवेश निधेष कयल गेल अछि ।
भाषा साहित्यमे शुद्धाशुद्धि
मैथिली साहित्यमे लिखल गेल या प्रकाशित भेल कृति सबमे शुद्धाशुद्धिके दयनीय अवस्था अछि । खास कँकें भूमिका, मन्तव्य आ विचारके लेल उपलब्ध पृष्टमे एहेन त्रुटि रेकर्ड तोड भेटैत अछि । कोनो भी पुस्तकके लेल यी सबटा महत्वपूर्ण अंग होयत अछि , मानल सेहो गेल अछि । पुस्तकके आत्मामे जौ त्रुटि भेटत त बाँकी सामग्रीप्रति पाठक लोकनिके अभिरुची कोनाके बढत ? सरकारी खर्चमे निकालल गेल पुस्तक सबले बड बेसी त्रुटि भेटैत छैक । ‘दीनाभद्री गाथा’ नामक पुस्तकमे ‘कुलपतिको मन्तव्य’ शिर्षकमे लिखल गेल सामग्रीमे शब्दविन्यास आ भाषाशैली बहुत जगल नहि मिलल छैक । एकैहटा वाक्यमे शब्द सब दोहराओल गेल अछि । एतबी नहि, एकैहटा शब्दके लेल फरक–शैली अपनाओल गेल अछि । वाक्यमे, ‘आदिम’ शब्द दोहरेनाई, ‘विकासक्रमसंगै’ आ ‘विकास क्रमसंगै’ दू तरिका सँ आयल अछि । एकटा वाक्य देखल जाए ःनेपालक हिमाल, पहाड आ तराईमे रहनिहार विभिन्न जाति, जनजाति सबके लेल सदीयौं स अपने मौलिकता मे संगीत आ नाटक बाचल अछि (?) । तहिना, मैथिली भाषामे लिखल गेल ‘मुक्ति संघर्ष गाथा’ मे ‘कला–सहित्य’ आ ‘तरानन्द’ अशुद्ध लिखल अछि । ओही पृष्ठमे ‘मणिपद्म’ के नाम एकैह बेर आबि गेल अछि । ओतक हुनक परिचय अभाव महशुश होएत अछि । ई त उदाहरण मात्रै थिक । एहेन साहित्य आ प्रकाशन सँ अखनो शैसव अवस्थामें रहल मैथिली भाषी सब कि सिखत ? तहिना, नेपालीमे लिखल गेल ‘नेपालके मैथिली साहित्यके इतिहास’ पुस्तकमे अनगिन्ती त्रुटि सब अछि । ओहिमे ‘रुपमा’ होमाक चाहि, पुरा किताब ‘पमा’ सँ भरल अछि । भूमिकामे ‘साहित्यके इतिहासके रुपरेखा उपस्थित होएत अछि’, प्रफुल्लसिंह मौनके लेल पहिने आदरसूचक ‘केलनि’ आ बादमे ‘ओकर’ गैर–आदरसूचक शब्दके प्रयोग भेल अछि । यै मे कोनो जगह ‘जी’ आ कोनो जगह ‘ज्यू’ भँ गेल छैक (‘राहुल ज्यू’ आ ‘मौन जी’ ) । लेखनीमे ‘ओकर’ आ ‘हुनकर’ में एकटा लिखला सँ भँ जाएत त दुनूके प्रयोग भेटैत अछि । तहिना कतौह ‘विद्या’ आ कतौह ‘विधा’ लिखल अछि । तहिना, मैथिली कला आ संस्कृतिमे बड बेसी केन्दित पुस्तक ‘नेपालका प्रदर्शनकारी कला’ मे नदि सबके जानकारी देमाक क्रममे ‘कमला’ सप्तरीमे (पृ.4), ‘मैथिल सांस्कृतिक’ आ ‘मैथिली सांस्कृतिक’(पृ.5) दू शब्दावलीके प्रयोग भेल अछि । लोकगीत आ लोकगाथा एकैह वाक्यमे आयल अछि(पृ14) , आम पाठकके गाथा वा गीत फरिछाबमे समस्या आबि सकैत अछि । एतह क्रमभंगता सेहो ओतबे अछि ।
मैथिली साहित्यमे प्रतिनिधित्वके सवाल
मैथिली साहित्यमें कविता संग्रहके प्रकाशन बड बेसी भेल अछि । अहूमे सेहो एकल जातिय समुदायके दबदबा अछि । मैथिली महाकाव्य आ खण्डकाव्य त मिथिलाके अन्य समुदायके पकडेमे नहि अछि । विस 2070 मे प्राप्त भेल एकटा सूची अनुसार ‘नेपालके प्रकाशित मैथिली साहित्य विद्या’ अन्तर्गत महाकाव्य, खण्डकाब्य, कविता–गीन–गजल हाइकू संकलनसहित 63 टा पुस्तकमे 7 गोटाके आलाबा बाँकी मिथिलाके कथित उच्च जातिके अछि । ओहीमे रामभरोस कापडिक मात्र चारिटा कृति सब समावेश अछि । ओ सूचीमे परैवला अन्यमे रामेश्वर अर्याल (शिव मधुकें भाग्यक रेखा, कविता संग्रह, 1979 ),राजेश्वर नेपाली (मिथिला मैथिली, कविता संग्रह, 2002), कुवेर घिमिरे (छिलमिल्ली, कविता संग्रह, 2005), जंगप्रसाद यादव(सप्तरंगी, कविता संग्रह 2008), अर्जूनप्रसाद गुप्ता (अखनो अन्हार लगैय, कविता संग्रह, 2008) आ डा.रामदयाल राकेस(समय सिलापर, कविता/हाइकू संग्रह 2010 ) अछि । मैथिली कथा/उपन्यास/एकांकी, साहित्येतिहास, लोकसाहित्य÷लोकसंस्कृति, मैथिली पत्रपत्रिकासहितमे सेहो कमोवेश ओहे अवस्था अछि । मैथिली साहित्यके यै सब विद्यामे रामभरोस कापडि अकेले प्रतिनिधित्व कए रहलाए । सूचीमे डा. चन्देश्वर साह (मल्लकालिन मैथिली नाटक, 1998 आ कारिख महाराज, 2004) आ डा. गंगाप्रसाद अकेला(मिथिलांचलक किछु लोककथा, 1998 ) सहित थपल गेल देखबामे आयल अछि । तक्कर बादक पाँच वर्षक दौरानमे के–कतेक बढल अछि सरकारी तथ्यांक उपलब्ध नहि अछि । परन्च अहि अवधिमे मिथिला क्षेत्रके दलित, मुसलमान, जनजाति, सोलकन, ओबिसी सहित समूदाय स साहित्यकारक उत्पादन नहि भेल अछि । तईं मिथिला क्षेत्रमे बसोबास कएनिहार आन समुदाय ‘मैथिली भाषा, साहित्य आ संस्कृति हमरो अछि’ कोनाकें कहत ? मात्र जनसंख्यामे मैथिली भाषी दोसर, परन्च प्रतिनिधित्वमे ओ सब पाछा किएक ? मैथिलीके सब क्षेत्रमे एकैह जातिके दबदबा आ प्रभाव रअल अवस्थामे मैथिलीप्रति आन समूदाय, जाति, सम्प्रदायके द्वारा अपनत्व कोनाकें ग्रहण कएल जाएत ? कोनो भी भाषाके साहित्य आ कला पीढिदर पीढि रुपान्तरण होबाक चाहीं । मुदा मैथिली साहित्यमे पहूँच आ शक्तिके आधारमे किछु व्यक्ति विशेष आ जातिके लोक सब अफना चंगूलमे एकरा रखने अछि । कतेको के चरित्र त एहनो देखबामे आयल अछि जे सरकारी स्रोत सँ प्रकाशित सामग्री सबमे अपना कार्यकारी संपादक आ श्रीमतिके संपादक मण्डलमे सेहो राखि देने छथि । मैथिली साहित्यके नाम पर लाखक लाख टाकाके परियोजना सब सरकारी आ गैरसरकारी संस्था सब सँ संचालित होइत आयल अछि, ओहूमे एकल जातिय हालीमुहाली बेसी देखल गेल अछि । तई ई भाषा साहित्य फराक होबाक बदला संकिर्ण बनैत जा रहल अछि । राज्यके द्वारा मैथिली भाषा साहित्यके विकासमे जोड देबाक बात कहि रहल अछि, परन्च अगूवा सब अपन घेरा सँ बाहर एकरा जेमामे अवरोध खडा केने छथि । पहूँचके आधारमे सरकारी अनुदानमे बहुत राश पुस्तक सब अगुवा लोकनि प्रकाशित खयने छथि , मुदा विक्री न्यून अछि । तईं ओ किताब सब पुस्तकालयके शोकेसक शृंगारक वस्तु मात्र बनल अछि ।
लोकवृत आ लोकसाहित्य
साहित्यमें लोकवृत्त महत्वपूर्ण होएत अछि । किएक त लोकवृत सँ लोकबचन आ लोकबचन सँ लोकसाहित्य बनैत छैक । ई बनाबईमे हजारौ वर्ष लैग सकैत अछि । नेपालीय मैथिली साहित्यमे ओ अखनोधरि शुभाराम्भ नहि भँ सकल अछि । अहिमे व्यापक अर्थ रखैवला ‘लोक’ शब्दके अउर फराक बनेबामे जोड देबाक आवश्यकता अछि । मैथिली साहित्य अखन स्तुतिगान केन्द्रित अछि । सहि रुपेण समालोचना या आलोचनाक आभाव खतैक रहल अछि । सहरके कोठामें एकरा सीमित कए देल गेल अछि । जाधरि ई गाम–गाम सँ नहि जुडत, फराक असंभव अछि । साहित्यके उद्गभ स्थल गाम थिकैह । लोकगाथा सब ओकरे उदाहरण सब थीक । मैथिली साहित्यकके उदय लोक–रचनाके रुपमे भेल अछि । ई लोक रचना कएनिहार सब पण्डित–विद्वान नहि छलाह । अनपढ–अशिक्षित लोक सब अपन आचार–व्यवहारके जहि तरहे उटपटाङ भाषामें व्यक्त करैत छालाह, ओहे छल लोक–रचना (डाँक–दृष्टि,पृ.30) । परन्च मिथिलामे पंजी व्यवस्था अन्तर्गत किछु जातिके ‘कुलीन पद’ देलाक बाद लोक–रचना आ लोक–मिलनके साहित्य, संस्कृति सँ बहुत दूर कए देलक । आब बुद्धके द्वारा क्षेत्रमे अवलम्बन कएल गेल भाषा नीतिके अंगिकार कएल जाए त मैथिली साहित्य जल्दिए ऊपर उठत । मिथिलामे भाषा नीतिके कारण बृद्धके ब्राह्मण विराधी मानि टिकैह नहि देलक । भारतीय लेक मोहन भारद्वाज लिखैत छथि ः
‘बुद्ध ब्राह्मण आ हुनक धर्मभाषा पर एक संग प्रहार कयलनि । ब्राह्रमण–धर्म आ ब्राह्मण–भाषा –दुनूक प्रभूता कें चुनौती देलनि । मुदा , एकटा बिन्दु पर ध्यान देबाक अछि । बुद्ध ब्राह्मण नहि, ब्राह्मण विचारधाराक विरोेधी छलाह । संस्कृत भाषा नहि, धर्माचार मे संस्कृतक माइनजनी हुनका अखरैत रहनि । तें ओ कोनो एकटा भाषा कें नहि, जनपदीय सभ भाषा कें समान मानलनि । एक बेर हुनक दू शिष्य हुनका सँ अनुरोध कयलथिन जे अपन धर्मोपदेशक भाषा कें वैदिक भाषा मे निबद्ध करबाक अनुज्ञा देल जाए । एहि पर बुद्ध कहलथिन–भिक्षुगण, हम अपन वचन कें प्रत्येक व्यक्तिक अपन–अपन भाषा, शैली मे सिखबाक–बुझबाक, लिखबाक आज्ञा दैत छी ’डाक–दृष्टि,पृ.60-61) ।
मैथिली साहित्यमें मानक
मैथिली साहित्यमे ‘मानक’ के पाछा दौरैवला सबके बुद्धके भाषा नीति स्वीकार करैत आगा बढबाक विकल्प नहि अछि । अहि सँ भाषामें विद्यमान व्यक्तिके घेराबन्दी टुटत, मैथिली भाषा आ साहित्य सफलताके शिखर पर पहूँच सकत । भाषा संवाद छैक, संवादक माध्यम अछि । व्याकरण भाषाके बुझबाक एकगोटा साधन मात्र थिक । अहि साधनक आभावमे सेहो संवाद भँ सकैत अछि । अपन सोच, विचार, भावना–कामनाके व्याकरण बिना सेहो आन समक्ष पहुँचायल जा सकैत अछि । अखनो मिथिला क्षेत्रमे हजारों लोक बिना व्याकरणके जीवन यापन करिए रहल छथि । धान रोपनिहार आ बरद बजारके व्यापारीके भाषा व्याकरण सँ नहि बुझबामे आबि सकैत अछि । अपराधी–आतंकवादी सबके भाषाके व्याकरण बुझए लागब तँ अपने फँसि सकैत छी । एकर अर्थ सामान्य लोकनिके लेल व्याकरणक अनिवार्यता नहि छैक । व्याकरण त शब्द सबके सामाजिक सन्दर्भ बुझबाक लेल आवश्यक अछि । तईं मैथिल भाषा साहित्यमे मानकके नाम पर संस्कृत जका ‘पाणिनि–व्याकरण’ के अनुयायी बनैय सँ बचेबाक प्रयास होय । सब गोटाके जन–जिव्हाके साहित्यमे स्थान आ सम्मान भेटबाक चाहि । भाषाके सत्ता–राजनीति, पुरस्कार आ सम्मान प्राप्तिके साधान नहि बनेबाक चाहि । जनकपुरमे मैथिली नाम पर होमेवला व्यापार आ बाँटबखराके आब अन्त्य होबाक चाहि । विद्यापति पुरस्कार समारोहसहितके मैथिली भाषा साहित्यके विशुद्ध उन्नतिमे मिलक पाथर बनेबाक आवश्यकता अछि । मैथिली साहित्यके भविष्य उज्वल अछि ।
सन्दर्भ सामग्री
–आंगन, मैथिली भाषाक वार्षिक पत्रिका, नेपाल प्रज्ञा प्रतिष्ठान, वर्ष 2, अकं 3, अगहन 2067
–ऐऐ, वर्ष 5,अंक 5,वैशाख 2070
– ऐऐ., वर्ष 6,अंक 6,पुस 2070
– ऐऐ, वर्ष 7,अंक 7, माघ 2072
–मधेस समस्या र सम्भावना:, सम्पादनः वसन्त थापा र मोहन मैनाली,सोसल साइनस वहाः सन 2007
–नेपाली कथामा दलित,नेपाल प्रज्ञा–प्रतिष्ठान,2074
–मैथिली कविता संग्रह, ऐऐ, 2053 ।
–लोकनायक सलहेस, ऐऐ , 2070 ।
–नेपालको मैथिली साहित्यको इतिहास, ऐऐ. 2070 ।
–जयवर्धन सलहेश, मुना चौधरी, संग्रीला बुक्स, 2074 दोस्रो संस्करण ।
–दीना भद्री गाथा,नेपाल संगीत तथा नाट्य प्रज्ञा प्रतिष्ठान, काठमाडौं,2075 ।
–नेपालका प्रदर्शनकारी कला, ऐऐ, 2074.
–डाक–दृष्टि, मोहन भारद्वाज, मैथिली लोक रंग, दिल्ली,2012