मैं….
शाख की असंख्य पत्तियों में से मैं भी एक हूं।
नन्हा सा, कोमल, लचीला, नवजन्मा हूं, नेक हूं।
वायु वेग मुझको हिलाती, डुलाती, झुलाती है।
स्वयं शांत हो कर हम सभी को वह सुलाती है।
वायु के प्रचंड वेग संग शोर करना नहीं आता।
सीख लूंगा एक बार, जीवन पर्यंत नहीं जाता।
काल से मैं जन्मा हूं, प्रकृति वृक्ष पर उगाती है।
सर्दी, गर्मी, बारिश के संग लड़ना सिखाती है।
काल ने रूप बदला, अब मैं भी सब सीख गया।
मस्ती में झूमता, इठलाता हूं, मैं भी अब युवा भया।
सीख कर गुर मैं औरों से, अब मैं भी लड़ने लगा हूं।
आ गई है मुझमें चेतना, पहले था सोया अब जगा हूं।
कई रूप कई रंग काल का है ढंग, मैं लड़ता ही रहा।
दिन रात सर्दी गर्मी बारिश का कहर मैं सहता ही रहा।
कुछ लड़े, कुछ भिड़े, टूट कर गिरते परिलक्षित हुआ।
एक दिन मैं भी धरा पर गिरूंगा, सोच विचलित हुआ।
गिरते पत्तों ने सिखाया, न हो विचलित, न करो प्रलाप।
नियति का ये ढंग है, झूमो, नाचो और गाओ आलाप।
भागीरथ प्रसाद