मैं
ऐसा लगता है…
मेरे अंदर …
मैं कहीं नहीं हूं..
ये कोई और ही है,
जो रह रहा है
इस चार दिवारी में।
ये वो जीवन तो नहीं है,
जैसा मैं जीना चाहती थी…
ये वो मैं तो नहीं हूं,
जैसी मैं थी,
या होना चाहती थी।
मै तब भी खुश थी,
जब मेरे पास कुछ नहीं था,
सिवाय उम्मीद के,आशाओं के….
आज सब कुछ होकर भी
न खुशी है, न उम्मीद, न आशा…
ऐसा लगता है
मैं खुद से दूर होती जा रही हूं…
चलते चलते कहीं बहुत दूर आ गई हूं।
अब वापस लौट जाना चाहती हूं…
वहीं, जहां से
खुद को छोड़कर
निकल आईं हूं मैं….
पता नहीं अब कहां जाऊंगी मैं…
पता नहीं अब खुद को कहां पाऊंगी मैं।