“मैं ख़ुद की बनी राह पर चलना चाहता हूँ”- कविता
चाहें राह काँटों से भरी हो या अंगारों से
चाहें सामना बीहड़ से हो या मझधारों से
चाहें निबाह ग़ुरबत में हो या गुल्ज़ारों में
चाहें पनाह शिद्दत में मिले या बहारों में
औरों की राह मंजूर नहीं,टलना चाहता हूँ
मैं ख़ुद की बनी राह पर चलना चाहता हूँ…….
मैं तन्हाई में कभी बादलों से बातें करूँगा
कभी तारों से कभी चाँदनी से बातें करूँगा
हवा से दोस्ती करूँगा फ़िज़ा से बातें करूँगा
मैं ज़रा ज़रा सी खुशियों को सौगातें करूँगा
औरों की पनाह मंजूर नहीं,पलना चाहता हूँ
मैं ख़ुद की बनी राह पर चलना चाहता हूँ……..
ये दिन आज है खिला क्या पता कल हो ना हो
ये सफ़र , ये काफ़िला क्या पता कल हो ना हो
मुसाफ़िर हूँ मैं,इस ज़िन्दगी को जीना चाहता हूँ
कुआँ खोदकर ख़ुद से, मैं पानी पीना चाहता हूँ
औरों की सलाह मंजूर नहीं ,गलना चाहता हूँ
मैं ख़ुद की बनी राह पर चलना चाहता हूँ……
मैं टूटूंगा कभी बिखरकर फ़िर से जुड़ जाऊँगा
ना दौड़ सका तो चलूँगा ना चल सका तो रेंगूंगा
हर तकलीफ़ हर मुसीबत से मैं भिड़ जाऊँगा
लावा इक्कठा करता जाऊँगा अन्दर ही अन्दर
किसी ज्वालामुखी सा पिघलना चाहता हूँ
मैं ख़ुद की बनी राह पर चलना चाहता हूँ……..
जुनूनी हैं जड़े फ़िर आंधियों से डरना क्या
उठती लहरों से,इन तूफ़ानों से डरना क्या
क़दम जवां हैं उठते सैलाबों से डरना क्या
मैं बनकर गहन उजाला ,जलना चाहता हूं
हर आंधी ,तूफ़ां,अंधेरे से निकलना चाहता हूँ
मैं ख़ुद की बनी राह पर चलना चाहता हूँ……
___अजय “अग्यार