मैं हिन्दू और तूं मुस्लमां
तूं मुझमें है तो फ़िर निहां क्यूं है
फ़ासला ये तेरे मेरे दरम्यां क्यूं है ।
मोहसिन-ए-इन्सानियत तो दोनो ही है
फ़िर मैं हिन्दू और तूं मुस्लमां क्यूं है ।
वो गर रुह-ए-लैला है तो या खुदा
तङफ़ जुनून-ओ-खलवत फ़कत यहां क्यूं है ।
सफ़र आसां है इख्तियार सें इल्तिजा का
समझ आए न गर जुबां क्यूं है ।
सागर घङसानवी