मैं स्त्री हूँ…बस यही काफी है…
कभी जात-पाँत के नाम पर
कभी धर्म-अधर्म के काम पर
और कभी – कभी तो ‘नारी’
इनका प्रिय विषय बन जाती है
क्या ऐसा करते हुए आपको
तनिक लज्जा नहीं आती है…
जरूरत क्या है आपको
अपने मतलब से
देश को बाँटने की
भक्त बनकर कुछ भी कह दो
थूककर फिर चाटने की…
किसने आपको हक दिया है
कुछ भी कह लेने का
एक को सही और
दूसरे को गलत ठहराने का…
अगर ‘विचारों की अभिव्यक्ति
की स्वतंत्रता’
आपका मौलिक अधिकार है
तो क्या बाकी नैतिक मूल्य
यूँ हीं बेकार है…
क्यों आपने ‘नारी’ को
एक मुद्दा बना डाला
किसने आपको ठेकेदारी दी
सभ्यता और संस्कृति
बतलानें की…
है क्या सही और क्या गलत
यह आप कैसे बताओगे???
किसे क्या करना है
यह आप कैसे सिखाओगे…?
पक्षियों की उड़ान को क्या
अब आप परवाज़ दिखाओगे?
अब हवा के रुख को
सीधा चलना से सिखाओगे…
क्या पानी को अपनी दिशा में
बहने से रोक पाओगे???
स्वतंत्रता का मतलब अब
आप हमें बतलाओगे…?
‘स्वतंत्रता’ अर्थात
अपने शरीर, मन, मस्तिष्क
एवं विचारों पर स्वयं का शासन…
अब मेरी सोच में क्या आएगा
विचारों को पकड़ने जाओगे?
बेटी कहकर पूजा करोगे
और बहुओं को नीचा दिखलाओगे…
ठहरो, रुको, सोचो जरा
किंचित से अहंकार की खातिर
कब तक स्तर को गिराओगे…?
बस! अब और नहीं
मेरा अस्तित्व
तुम्हारे प्रमाण-पत्र का
मोहताज नहीं…
सम्मान के बदले सम्मान
अपमान के बदले
अपमान ही पाओगे…
बहुत जी लिए डरकर
अब और कितना डराओगे???
शर्म, लज्जा, कपड़े, गहने
क्या कहूँ या क्या ना कहूँ
यह भी आप ही समझोगे…?
हो कौन आप
किसने दिया यह अधिकार आपको
पूछती हूँ आज आपसे…
नहीं ज़रूरत आपके मानदंडों की मुझे
मैं स्त्री हूँ…
बस यही काफी है…
-✍️देवश्री पारीक ‘अर्पिता’
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