मैं सौ सौ इल्तिजा कर लूँ
एक शोर दिल-ओ-दिमाग में, सुब्होशाम होता है
मैं खाली बैठा हूँ लेकिन, कहाँ आराम होता है
मैं सौ-सौ इल्तिजा कर लूँ, मगर कोई नहीं सुनता
वो एक गाली देता है, फ़टाफ़ट काम होता है
ज़मीर को कुछ कहने सुनने का, मौका नहीं देता
लाउड म्यूजिक पे नाचता हूँ हाथ में जाम होता है
मंजिल के बाद बेमानी सा, सफ़र है बुढ़ापा
न कोई काम होता है, न ही आराम होता है
आदत अब इस उम्र में तो, छूटने से रही दोस्त
मोहब्बत का शराफत का ,जो भी अंजाम होता है
जिद छोड़ दी दुनिया के तौर, सीख लिए लेकिन
‘सुरेंदर’ की कामयाबी में, ‘कर्कश’ नाकाम होता है
शराफत एक तोहमत बन गई ‘कर्कश’ के माथे पर
कहीं बेईज्ज़त होता है ,कहीं बदनाम होता है
-सुरेन्द्र ‘कर्कश’