मैं सब कुछ बोल जाता हूँ
कभी मैं गीत गाता हूँ, कभी कविता सुनाता हूँ।
कभी तुमको हंसाता हूँ कभी तुमको रुलाता हूँ।
कभी कड़वा कभी मीठा कि रस मैं घोल जाता हूँ ।
यहाँ दिल में नहीँ रखता की सब कुछ बोल जाता हूँ !
मेरी पीड़ा मेरी चिंता, मेरे शब्दों में होती है।
हर एक लम्हे की बेचैनी मेरी कविता में होती है।
लबों को क्यूँ रखूँ ख़ामोश मैं इनको खोल जाता हूँ।
यहाँ मैं दिल में नहीँ रखता कि सब कुछ बोल जाता हूँ।
कोई दिल में बसाता है कोई पीछा छुड़ाता है ।
ये फ़ितरत है यूँ इंसान की कोई आता है जाता है ।
ज़मी पे मैं पड़ा पत्थर नहीँ मैं मोल आता हूँ ।
यहाँ दिल में नहीँ रखता कि सब कुछ बोल जाता हूँ।
जो बिकता है बाज़ारों में कभी वो लिख नहीँ सकता।
जो लिखता है धरातल पे कभी वो बिक नहीँ सकता।
की झूठा लिख नहीँ सकता कि स्याही ढोल आता हूँ।
यहाँ दिल में नहीं रखता कि सब कुछ बोल जाता हूँ।
मेरे जज़्बात, मेरे अरमां मेरे सपने ही अपने हैँ,
की बाक़ी कौन है मेरा सभी सपने ही सपने हैँ
कि रिश्तों की तराज़ू में मैं सबको तौल आता हूँ
यहाँ दिल में नहीँ रखता कि सब कुछ बोल जाता हूँ।
कद्र मेरी करोगे तुम कि जब मैं गुम हो जाऊँगा।
मुझे ढूंढा करोगे तुम ना वापस फिर मैं आऊंगा
अभी तो घर का जोगी हूँ ना अमृत घोल पाता हूँ
यहाँ दिल में नहीं रखता कि सब कुछ बोल जाता हूँ ।
रचनाकार- सुधीरा