मैं विपदा—-
मैं विपदा की हूँ तरंग,
जिस ओर चलूँ, जिस ओर मुरूँ,
कायर की न भांति चलूँ,
तनिक टूटते मेरे तन,
कर देती मैं अंग भंग,
राहों की हूँ पथिक मतंग,
मैं विपदा की हूँ तरंग ।
सिन्ध के चंचल जल को थीर कर,
महीधर के अटल हृदय को चीर कर,
धरा गगन को निज हाथों से तीड़ कर,
प्रकृति की चंचलता को सुड़ीर कर,
राह बनाती चलूँ उमंग ,
मैं विपदा की हूँ तरंग ।
समीर के संग न चलूँ कभी,
अधीर के घर न पलूँ कभी,
चलूँ जिधर वह राह वही,
दया याचना की चाह नहीं,
मैं ही हूँ वह ध्वजा स्वयं,
मैं विपदा की हूँ तरंग ।
उमा झा