मैं वर्तमान की बेटी हूँ
बीसवीं सदी में,
प्रेमचंद की निर्मला थी बेटी,
इक्कीसवीं सदी में,
नयना / गुड़िया या निर्भया,
बन चुकी है बेटी।
कुछ नाम याद होंगे आपको,
वैदिक साहित्य की बेटियों के-
सीता,सावित्री,अनुसुइया ,उर्मिला ;
अहिल्या , शबरी , शकुंतला ,
गार्गी , मैत्रेयी , द्रौपदी या राधा।
इतिहास में
यशोधरा, मीरा, रज़िया या लक्ष्मीबाई
साहित्य में
सुभद्रा, महादेवी, शिवानी,इस्मत ,अमृता ,
अरुंधति या महाश्वेता
के नाम भी याद होंगे।
आज चहुंओर चर्चित हैं-
सायना ,सिंधु ,साक्षी ,सानिया ;
जहां क़दम रखती हैं ,
छोड़ देती हैं निशानियां।
घूंघट से निकलकर,
लड़ाकू – पायलट बन गयी है बेटी,
सायकिल क्या रेल-चालिका भी बन गयी है बेटी,
अंतरिक्ष हो या अंटार्टिका,
सागर हो या हिमालय,
अपना परचम लहरा चुकी है बेटी,
क़लम से लेकर तलवार तक उठा चुकी है बेटी,
फिर भी सामाजिक वर्जनाओं की बेड़ियों में जकड़ी है बेटी।
सृष्टि की सौन्दर्यवान कृति को ,
परिवेश दे रहा आघात के अमिट चिह्न ,
कुतूहल मिश्रित वेदना की अनुभूति से,
सजल हैं बेटी के सुकोमल नयन ,
हतप्रभ है-
देख-सुन समाज की सोच का चयन।
उलझा हुआ है ज़माना,
अव्यक्त पूर्वाग्रहों में,
बेटी के माँ -बाप को डराते हैं –
पुरुष के पाशविक , वहशी अत्याचार ,
कुदृष्टि में निहित अन्धकार ,
दहेज से लिपटे समाज के कदाचार ,
क़ानून के रखवाले होते लाचार ,
चरित्र-निर्माण के सूत्र होते बंटाढार ,
भौतिकता का क्रूरतर अम्बार।
बेटी ख़ुद को कोसती है,
विद्रोह का सोचती है ,
पुरुष-सत्ता से संचालित संवेदनाविहीन समाज की ,
विसंगतियों के मकड़जाल से हारकर ,
अब न लिखेगी बेटी –
“अगले जनम मोहे बिटिया न कीजो ,
मोहे किसी कुपात्र को न दीजो “।
लज्जा, मर्यादा ,संस्कार की बेड़ियाँ ,
बंधन -भाव की नाज़ुक कड़ियाँ,
अब तोड़ दूँगी मैं ,
बहती धारा मोड़ दूँगी मैं ,
मूल्यों की नई इबारत रच डालूँगी मैं ,
माँ के चरणों में आकाश झुका दूँगी ,
पिता का सर फ़ख़्र से ऊँचा उठा दूँगी,
मुझे जीने दो संसार में,
अपनों के प्यार -दुलार में ,
मैं बेटी हूँ वर्तमान की !
मैं बेटी हूँ हिंदुस्तान की !!
– रवीन्द्र सिंह यादव