मैं लड़ता हूँ दिन-रात अकेला
शीर्षक – मैं लड़ता हूँ दिन-रात अकेला!
विधा – गीत
परिचय – ज्ञानीचोर
शोधार्थी व कवि साहित्यकार
मु.पो. रघुनाथगढ़, सीकर,राजस्थान
मो. 9001321438,
मैं लड़ता हूँ दिन-रात अकेला,
पथ के कंटक विचलित करते।
रो पड़ती अकेली अधीरा छाती,
फिर भी जीता जाता मरते-मरते।।
लौ पड़ जाती मंद दीप की,
फड़क उठती फिर भी बाती।
चुप-चुप हो सहकर भी कुछ,
फूट पड़ती है मेरी छाती।।
कर्म विमुखता न होकर भी,
भाग्य से लड़ता जाता हूँ।
विपत्ति-रोड़े ठोकर बनकर,
इस-उस पार चला आता हूँ।।
थक जाते पग-जग-मग,
किसी सहारे की क्या आशा।
लेती मन की थकन जकड़,
फिर भी जग जाती आशा।।
घनघोर घटा कजरारे घन,
सौदामिनी और वज्रपात।
हो दु:खों पर नीरदमाला से,
प्रहार तेज हो करकापात।।
जीवन में जड़ता जड़ती जाती,
फिर भी पद प्रहार करता जाता।
निःसहाय होकर भी पथ में मैं,
कर्म की राह चलता जाता।