“‘मैं लोकतंत्र से बोल रहा हूँ'”
मैं लोकतंत्र से बोल रहा हूँ,सबकी आंखें खोल रहा हूँ,
बाहर कितनी लूट मची है,खुली आंख से देख रहा हूँ,
व्यापारी हों,अधिकारी हों,निज़ी और सरकारी हों,
चाहे सत्ता के व्यभिचारी हों, बुरे जनों को तोल रहा हूँ,
मैं लोकतंत्र से बोल रहा हूँ,,,,,,,,,,,
मीडिया हों या सम्पादक वर्ग,धार्मिक अंध के आराधक वर्ग,
ऊंच-नीच में नहीं फ़र्क, इंसा को इंसा से जोड़ रहा हूँ,
मैं लोकतंत्र से बोल रहा हूँ,,,,,,,,,,,,
चरित्र बदलते जो दिखे सात्विक, चाटुकार कुछ हुए साहित्यिक,
ढोंग फेरते बन गये तात्विक,बेबुनियाद स्तम्भ को तोड़ रहा हूँ,
मैं लोकतंत्र से बोल रहा हूँ,,,,,,,,,,,,
जनतंत्र में कुछ घुसे चोर,हर वक्त मचाये बिपुल शोर,
अपनो के लिए लगाते जोर,इस चाटुकार को रोक रहा हूँ,
मैं लोकतंत्र से बोल रहा हूँ,,,,,,,,,,,
‘अखिल’ विश्व में शांति रहे,अब नहीं कोई भी भ्रांति रहे,
अच्छे के लिए ही क्रांति रहे,इस सवाल को छोड़ रहा हूँ,
मैं लोकतंत्र से बोल रहा हूँ,,,,,,,,,,,,,
नहीं चाहिए ज्ञानपीठ,न आलोचक की निजी टीस,
मत कविता पर रखिये कोई फीस,अंतर्मन को अपने झकझोर रहा हूँ,
मैं लोकतंत्र से बोल रहा हूँ,,,,,,,,,,,,,,