मैं मजदूर हूँ
दो जून की रोटी
की जद्दोजत में अड़ा,
पसीने से लथपथ
फुटपाथ में पड़ा,
पथरीली आँखों में
रोटी की तस्वीर लिए खड़ा हूँ
हाँ मैं मजदूर हूँ।
न कोई घर न ठिकाना,
जहाँ रोटी वही मेरा जमाना,
जीवनसंगिनी साथ लिए ,
भूखे बच्चों संग मैं भी बिलखता।
भिखारी, नौकर, अनपढ़,
न जाने कितने नामो से मशहूर हूँ
हां मैं मजदूर हूँ।
खुला आसमाँ ही मेरा घर,
तपती दुपहरी में
बोरा उठाते,
रिक्शा चलाते,
गालियाँ खाते,
लोगो की निगाहो से शर्माते,
सच में मैं कितना मजबूर हूँ
हाँ साहब मैं मजदूर हूँ।