मैं भारत माँ का प्रहरी हूँ
मैं सीमाओं पर रहूँ सजग, अपना कर्तव्य निभाता हूँ
मैं भारत माँ का प्रहरी हूँ, चरणों में शीश झुकाता हूँ।
है शस्य श्यामला भारत माँ, मुझको प्राणों से प्यारी है
है मुझको इस पर नाज बहुत, सारी दुनिया से न्यारी है
हिमगिरि का उन्नत भाल प्रखर, सरिता की कल कल में भी स्वर।
इसके रज कण में है चंदन, कंकर कंकर में है शंकर।
मैं भारत माँ की माटी का, मस्तक पर तिलक लगाता हूँ।
मैं भारत माँ का प्रहरी हूँ, चरणों में शीश झुकाता हूँ।
तुम क्या जानो किस जीवट से, सैनिक का जीवन चलता है
सीमाओं पर सैनिक प्रतिपल, जीता है, प्रतिपल मरता है
हर पल आसन्न मृत्यु सम्मुख, वो किंचित भी भयभीत नहीं
किस पल आलिंगन हो जाए, वो हर पल तत्पर रहता है
उस बलिदानी के साहस का, मैं शत् शत् वंदन करता हूँ
मैं भारत माँ का प्रहरी हूँ, चरणों में शीश नवाता हूँ।
सैनिक के परिजन तो घर में, आशंका में ही रहते हैं
जब जब भी घंटी बजती है, तब उनके ह्रदय धड़कते हैं
होली दीवाली आती है, बेमन से उसे मनाते हैं
इसको ही अपनी नियति मान, वो भूखे ही सो जाते हैं।
मैं सैनिक के उन परिजन के, साहस का वंदन करता हूँ।
मैं भारत माँ का प्रहरी हूँ, चरणों में शीश झुकाता हूँ।
तुम सैनिक को गरीब कहकर, उसका उपहास उड़ाते हो।
उस बलिदानी के साहस को, तुम नित्य लजाते जाते हो।।
जब तक सीमा पर सैनिक है, स्वच्छंद घूमते रहते हो।
तुम तो दैनिक जीवन में भी, अभिरक्षा में ही रहते हो।।
जो खुद कायर है मैं उसका, सम्मान नहीं कर पाता हूँ
मैं भारत माँ का प्रहरी हूँ, चरणों में शीष झुकाता हूँ।
श्रीकृष्ण शुक्ल, मुरादाबाद।