मैं भस्म धूनि-सा अनवरत
सिलबट्टे पर पिसा हुआ,
हल्दी हूं चंदन हूं केसर हूं
मर्यादाओं की गांठ कसी पोटली हूं,
न रंग बदलता हूं न मिटता हूं,
तुम चाहो तो राख समझ लो।
देवदार बांज चीड़ सुरई हूं,
साल शीशम नीम बरगद हूं,
आम हूं चिनार हूं कचनार हूं,
तृण-तृण पुष्ट जीवित जीवाश्म हूं
तुम चाहो तो काठ समझ लो।
मक्का मदीना भी नापा,
काशी कांची मथुरा तिरुमाला भी,
दरगाह ए चिश्ती अजमेर भी,
गंगोत्री से त्रिवेणी प्रयाग भी,
तुम चाहो तो पाक समझ लो।
उड़ता फिरता नदी-पर्वत,
तुम्हारी परिधि में आ पड़ता हूं,
न प्रश्न हैं तुमसे, न जिज्ञासा,
न प्रेम प्रतीक्षा, न कोई आशा,
तुम चाहो तो चाक समझ लो।
न रुकता हूं न ढलता हूं,
समय के चक्र पर चढ़ता उतरता हूं,
सैंकड़ों बवंडर, थपेड़े नित-नित,
मैं भस्म धूनि-सा अनवरत जलता हूं,
तुम चाहो तो आग समझ लो।
-✍श्रीधर.