“मैं बहती नदी सी”
मैं बहती नदी सी
तुम प्रवाह रोक पाओगे…
किंचित नहीं संशय मन में
वर्जनाओं को तोड़ पाओगे…
है व्यथा जो मन की
बैठ कहीं सुन पाओगे…
हैं कठोर दृग के नीर
तुम गरल पान कर पाओगे…
वेदनाओं को लपेटे
घूमती हैं रीतियाँ
अस्त्र बनाने की खातिर
तुम दधिचि बन पाओगे…
हैं न जाने प्रश्न कितने
तुम उत्तर दे पाओगे…
©निधि…