मैं फिर आऊंगा
मेरे प्यारे निष्ठुर शहर !
मैं फिर आऊंगा
तेरे पास
उदास मत हो
भले तूने आश्रय नहीं दिया
मेरी मज़बूरी को न समझा
न तरस खाई
तो क्या करता ?
पत्थरों पर मरने से अच्छा लगा
अपने गाँव की सोंधी मिट्टी में
दफ़न हो जाना.
पर फिर आऊंगा
शहर तेरे चौखट
मजबूर मैं भी हूँ
मजबूर तुम भी
‘भूख’ मज़बूरी है मेरी
विकसित होने की तेरी
आग बराबर लगी है.
तुम समझते हो
नहीं समझ पाता तेरी मज़बूरी
बाजीगर जो ठहरे
छुपा लेते हो
चेहरे के अंदर
कई परतों में अपनी मज़बूरी
मेरी तो झलक जाती है.
थेथर हूँ,
फिर आऊंगा
उन्हीं अँधेरी झुग्गियों में
उजाड़ मत देना
विकास की रफ़्तार में
मेरी पहचान को
नेह टूटा नहीं
तुम्हे विकास की रफ़्तार देने
अपने उसी जर्जर शरीर से
जिसे छोड़ दिया था तड़पता
बीच मझधार में,
अशेष विपदा में,
स्वयं लड़ने के लिए
अपनी मजबूरियों से
और आत्मनिर्भर होने के लिए.