मैं पुरुष रूप में वरगद हूं-1
शीर्षक:- मिथ्या कहते है सबल श्रेष्ठ, मैं पुरुष रूप में वरगद हूं
भीतर से हूं निरा खोखला, बाहर दिखता गदगद हूं…
मिथ्या कहते है सबल श्रेष्ठ, मैं पुरुष रूप में वरगद हूं…
मैं वरगद हूं, मैं वरगद हूं, मैं वरगद हूं, मैं वरगद हूं…
सदियों से नारी का शोषक, अंतर में केवल काम भरा..
दंभी, छलिया, कभी नेह शून्य जग ने जो चाहा नाम धरा..
मैं रहा ताकता अरसे से मुझको भी तो कोई जाने…
अतिशय कठोर आवरण के उर अंतर में कितने छाले..
सम्मुख जो दिखता शुष्क शूल मैं नर्म सुहानी कौपल हूं…
मिथ्या कहते है सबल श्रेष्ठ, मैं पुरुष रूप में वरगद हूं…
मैं वरगद हूं, मैं वरगद हूं, मैं वरगद हूं, मैं वरगद हूं…
भारतेन्द्र शर्मा “भारत”
धौलपुर, राजस्थान