मैं दिया बन जल उठूंगी
रात्रि के काले अंधेरे
और अमावस के दिनों में,
मैं तेरे आंगन की देहरी
में दिया बन जल उठूंगी।
भरूंगी आलोक पथ में
सहचरी बन संग चलूंगी।
दौड़कर जा पथ में आगे
शूल कंकर सब चुनूंगी ।
और आंचल में समेटे पुष्प सब
पथ पर तेरे बिखेर दूंगी ।
साधने को प्रयत्न ये सब
सहगामिनी ही मैं बनूंगी ।
अनुगामिनी न मैं बनूंगी।
तेरे सब मनोभावों से
श्रृंगार निज मन का करूंगी ।
और तेरी तन की देहरी पर
निज कलेवर सौंप दूंगी।
आकाश बनकर मेरा तुम
ढंक लेना अपनी बांहों में ।
तव लक्ष्य निज सब धारकर
मैं तेरी धरती बनूंगी।
सरस्वती बाजपेई
कानपुर नगर
उ. प्र.