मैं तो प्रकृति हूं
मैं सब में हूं सबकी हूं सबको समर्पित हूं
प्रभु की अनमोल सौगात मैं तो प्रकृति हूं
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अकूत अनगिनत वरदानों से अलंकृत हूं
मैं ही तो नीले गगन में तारों में अंकित हूं
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सागरों की गहराइयों में तो सुसज्जित हूं
पाकर पहाड़ों की ऊंचाइयां असीमित हूं
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आवारा बरसते बदलों में मैं तो द्रवित हूं
मैं तो कड़कती बिजलियों की कुपित हूं
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हरे पेड़- पौधौं की हरियाली से हर्षित हूं
फूलों की विविधताओं पर प्रफुल्लित हूं
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जीवन को प्राण देती वायु मैं तो गति हूं
दहकती आग की ज्वाला प्रज्वालित हूं
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जीवन के हर पहलुओं में मैं संतुलित हूं
मैं ही तो जलचरों नभचरों में जीवित हूं
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ये उदारता समानता पे आश्चर्यचकित हूं
दीन-दुखियों की पुकारें अप्रसन्नचित्त हूं
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असमर्थों का तो मैं ही सामर्थ्य शक्ति हूं
प्रगतिपथ पर बढ़ों मैं तो अभिव्यक्ति हूं
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सबकुछ अनिश्चित है मैं ही सुनिश्चित हूं
जनम-मरण हर कदम तो व्यवस्थित हूं
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सन्तुलन की सीढ़ियों पे चढ़ी प्रगति हूं
तुम मुझ में रमो मैं तुम में मैं प्रकृति हूं
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-रामचन्द्र दीक्षित ‘अशोक’