मैं तो आत्मा हूँ
मैं तो आत्मा हूँ, चिर ज्वाला,
जो काया के बंधन में बाँध,
तूफानों में भी सजग खड़ी,
अचल,अडिग,अमर,अविरल।
मैं नहीं माटी की प्रतिमा,
जो जल जाए दीपक-सी क्षणिक,
मैं हूँ वह शाश्वत चिंगारी,
जो समय के साथ है अनंत।
रजनी के तम में भी जलूँगी,
दिनकर की किरण सी छा जाऊँ,
सागर की अतल गहराई से,
मैं फिर उषा के रंग रचाऊँ।
माया के इस दलदल में भी,
मैं हूँ स्वर्णिम ज्योति महान,
जीवन-मरण की इस यात्रा में,
हर बंधन से रहती अजान।
मैं हूँ वह अमर आत्मज्योति,
जो युगों से जलती जाती,
धरती से नभ तक का राही,
परम सत्य से मिलने जाती।
निःशब्द हूँ पर निःशक्त नहीं,
प्रलय में भी मैं जाग्रत रहूँ,
जब पथ बिखर जाए तूफानों में,
मैं बन प्रकाश, दिशा दिखलाऊँ।
अरे! देह क्षीण हो जाए चाहे,
पर मैं हूँ वह तेज अनंत,
जिसमें जलता है अस्तित्व,
जिसमें समाहित है सारा जगत!
–श्रीहर्ष —