मैं तो अकेली चलती चलूंगी…
मैं तो अकेली चलती चलूँगी, धुन में अपनी मंजिल की,
परवाह न मुझको काँटों की, चाह न किसी बुजदिल की।
छुपकर कितने ही वार करे, ओछी हरकत औ घात करे,
मंशा उजागर हो ही जाती, समय आने पर कातिल की।
बचकर रहना उस कपटी से, बातों में मीठी आ न जाना,
कर्कशता हो काक-सी जिसमें, बानी बोले जो कोकिल की।
मेघ कितने छाएँ गगन में, अस्तित्व न सितारों का मिटता,
ढकना चाहे कोई कितना, छिपती न योग्यता काबिल की।
अकारण ही जिसने मुझपे, न जाने कितने जुल्म हैं ढाए,
ढुलकता है कब आँख से आँसू, देखूँ तो उस संगदिल की।
दे ले चाहे लाख दलीलें, निकल आएँगी बाहर सारी कीलें,
हार सुनिश्चित उसकी, पैरवी करे जो ऐसे मुवक्किल की।
पाप शमन हो जाते उनके, बस एक नाम नारायण लेने से,
भटक गए जो धर्म से अपने,कथा सिखाती अजामिल की।
समय सब बतला देगा एक दिन, किसकी कितनी है सीमा,
जाने दो जो चाहे कहे वह, क्यूँ फिक्र करूँ उस जाहिल की।
डाले पर्दे लाख गुनाहों पर, नजर से न उसकी बच पाएगा,
वो जो मालिक है इस जग का, रखता है खबर तिल-तिल की।
बीतेगा जल्द पतझर का मौसम, छाएगी बसंत- बहार
दूर से आती हवाओं में घुली है, सोंधी सी खुशबू मेपिल की।
– © डॉ. सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उ.प्र.)
“चाहत चकोर की” से