*मैं तुम और मजबूरी*
डॉ अरुण कुमार शास्त्री एक अबोध बालक ## अरुण अतृप्त
मैं तुम और मजबूरी
नयनों के रास्ते बात करना अच्छा लगता है ।।
मग़र नयनो की भाषा को पढ़ने की कला जानते हो ।।
तुम मन को नही पढ़ सके अभी तक ठीक से ।।
छूना तो बहुत दूर की बात है हे अजनबी ।।
दूरियां अजीबोगरीब रूप से पसरी हुई है ।।
इंसानों के संबंधों में बिखरी हुई हैं ।।
मकड़ी के अनसुलझे जालों सी ।।
विरला ही होगा कोई जो इनको सुलझाएगा ।।
तम के इस स्वरूप को जो पहचान पायेगा ।।
तुम दिखने में तो सूंदर ही पर मन से अनजान ।।
छूना तो बहुत दूर की बात है अजनबी ।।
नयनों के रास्ते बात करना अच्छा लगता है ।।
मग़र नयनो की भाषा को पढ़ने की कला जानते हो ।।
ऐसा नही के मैं सम्वेदना रहित हूँ ।।
यद्यपि अति संवेदन शील ही हूँ ।।
तानित सी बात से द्रवित हुँ वहाँ ।।
झंझावातों के बीच भी अडिग हूँ ।।
मग़र सम्बन्धो के मामलों में अत्यंत सज़ग हूँ ।।
कोई नव प्रयोग ही अब मेरे मन पर ।।
जमीं बर्फ को पिघला पायेगा ।।
पुराने करेलों से तो अद्यन्तन ये कार्य न हो पायेगा ।।
नयनों के रास्ते बात करना अच्छा लगता है ।।
मग़र नयनो की भाषा को पढ़ने की कला जानते हो