मैं तुम्हें फिर मिलूंगा
मैं तुम्हें फिर मिलूंगा,
कहाँ, कैसे, कुछ पता नहीं
शायद तुम्हारे ख्यालों का एक कतरा बनकर
या तुम्हारी किताबों के पन्नों पे उतर कर
मैं तुम्हें तकता रहूँगा
शायद सूरज को एक किरण बन कर
तुम्हारी स्याही के रंगों में घुल जाऊंगा
या फिर खुद को तुम्हारे शब्दों में उकेर दूंगा
नहीं जानता कहाँ और कैसे
पर मैं तुम्हें फिर मिलूंगा
शायद सर्दी की सुबह बन जाऊंगा
या ओस की बुँदे बनकर
तुम्हारे चेहरे पर ठहर जाऊंगा
अपनी ठंडक से तुम्हारे मन की
अशांति को शांत कर दूंगा
मुझे नहीं पता की ये वक़्त क्या करेगा
पर मैं जीवन भर तुम्हारे साथ चलूंगा
जब ये शरीर ख़त्म हो जायेगा
तब सब कुछ ख़त्म हो जायेगा
पर यादों के धागों पर जो गांठे बंधी हैं
उनसे यादों के हसीं टुकड़े चुनूँगा
मैं तुम्हें फिर से मिलूंगा
–प्रतीक