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11 Dec 2016 · 1 min read

मैं तन्हा रात काली स्याह देखती रही

उनके बिना दीवारें भी मुझे काटने लगीं,
मैं अनजानी हर अनजान राह देखती रही।

बारी बारी से सभी चिराग बुझते गए,
मैं तन्हा रात काली स्याह देखती रही।

कुछ ही दिनों की मौहलत थी जुदाई के पास,
रोते सिसकते बीतते मैं माह देखती रही।

हर धड़कन साँस रुकने की दुआ मांगती थी मैं,
लोग देते मुझे जीने की सलाह देखती रही।

उम्मीदों, वादों, कसमों की हर डोर टूटती गयी,
अपनी ही मैं आत्मा का दाह देखती रही।

————शैंकी भाटिया
अक्टूबर 4, 2016

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