मैं टूट चुका हूॅं !
मैं टूट चुका हूॅं !
हर तरफ हो रहे अत्याचार
देखकर अभद्र से व्यवहार
चारों दिशाओं के बॅंटाधार
मैं टूट चुका हूॅं, मैं टूट चुका हूॅं !
देख – देखकर तीक्ष्ण से प्रहार
सुनके व्यथित की चीख-पुकार
रो रहा ये देश, दुनिया, संसार
मैं टूट चुका हूॅं, मैं टूट चुका हूॅं !
व्यवहृत होते घिसे पिटे औज़ार
और कलम की जगह तलवार
बरसात की भयावह,भीषण बाढ़
मैं टूट चुका हूॅं , मैं टूट चुका हूॅं !
विलुप्त हो रहे आज सदाचार
नहीं है किसी को किसी से प्यार
हर तरफ हो रही कितनी लूटमार
मैं टूट चुका हूॅं , मैं टूट चुका हूॅं !
हर तरफ़ है गंदगी का ही अंबार
स्वच्छता तो दिखती कभी-कभार
हरेक प्राणी पड़ा है यहाॅं लाचार
कितने सारे तंत्र हो गए हैं बीमार
मैं टूट चुका हूॅं , मैं टूट चुका हूॅं !
कब पूरे होंगे मेरे सपनों का संसार
करूॅंगा स्वप्निल दुनिया का दीदार
मुझे बेसब्री से है इसका इंतज़ार
पर जल्द दिख न रहे कोई आसार
सचमुच,मैं टूट चुका हूॅं,मैं टूट चुका हूॅं !
कुछ ऐसे हैं मेरे सुंदर से विचार
कि हो जाएं सभी जन ही तैयार
करलें खुद से ही इक क़रार
मीठे बोल हों सबके हथियार
कभी ना हो कोई भी नरसंहार
ऐसा शुभ दिन आए बारंबार
तो मैं सबका ही करूॅं आभार
पर ना समझे जीवन का ये सार
चाहे वो कोई दुश्मन हो या यार
मैं टूट चुका हूॅं , मैं टूट चुका हूॅं !!
स्वरचित एवं मौलिक ।
© अजित कुमार कर्ण ।
***किशनगंज, बिहार***
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